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________________ दुनियाँ का हर व्यक्ति इस बात को स्वीकार करता है कि स्वार्थ अशान्ति का कारण है । परन्तु आत्म - विनाशी भ्रम एवं अज्ञान के कारण वह स्वार्थ की इंडिया दूसरे के सिर पर फोड़ता है । वह एक ही रट लगाता रहता है कि यह मेरा नहीं, उसका ( विरोधी का ) स्वार्थ है । 1 वह भूलकर भी इस सत्य को स्वीकार नहीं करता है कि मेरा स्वार्थ ही मेरे दुःख का कारण है । वह सदा अपने स्वार्थ पर पर्दा डालने का प्रयत्न करता है । यह अज्ञान एवं मिथ्या आकांक्षा उसे अशान्ति के नरक से ऊपर नहीं उठने देता, वह रात - दिन दुःखों के कुंभीपाक में सड़ता रहता है । किसी जब मनुष्य इस बात को स्वीकार कर लेता है कि मेरी समस्त अशान्ति वस्तुतः नरक और स्वर्ग क्या है ? अपने स्वार्थ एवं अपनी तृष्णाओं की आग को अपने दुःखों का कारण न मानकर, उसका दोष दूसरे के सिर पर रखना यह अज्ञान ही नरक है । और सत्य को स्वीकार करके उसे आचरण का रूप देना, यही स्वर्ग है । एक विचारक का कहना है- " जब मनुष्य इस बात को स्वीकार कर लेता है कि मेरी समस्त अशान्ति और सब दुःख मेरे अपने ही स्वार्थ के कारण है, तो वह स्वर्ग के द्वार से दूर नहीं हैं । " 2 और सब दुःख मेरे अपने ही स्वार्थ के कारण है, तो वह स्वर्ग के द्वार से दूर नहीं है। शिक 1. Most people will admit that selfishnen is the cause of all the unhappines in the world, but they fall under the soul destroying delusion that it is somebody else's selfishnen and nor their own. - James Allen. 2. When you are willing to admit that all your unhappiness is the result of your own selfishness, you are not far from the gate of paradise. - Ibid. 18
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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