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करना, सहोदर बन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना, दान-धर्म है । दाता बिना किसी प्रकार के अहंकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, सहज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे । वही दान वास्तव में दान है । दान का अर्थ हैं- संविभाग ।
इसीलिए भगवान् महावीर दान को 'संविभाग' कहते थे । संविभाग अर्थात् सम्यक्-उचित विभाजन-बँटवारा और इसके लिए भगवान् का गुरु-गम्भीर घोष था कि संविभागी को ही मोक्ष है, असंविभागी को नहीं- असंविभागीन हु तस्स मोक्खो। वैचारिक अपरिग्रह :
भगवान् महावीर ने परिग्रह के मूल तत्व, मानव मन की बहुत गहराई में देखे । उनकी दृष्टि में मानव-मन की वैचारिक अहंता एवं आसक्ति की हर प्रतिबद्धता परिग्रह है । जातीय श्रेष्ठता, भाषागत पवित्रता, स्त्री-पुरुषों का शरीराश्रित अच्छा-बुरापन, परम्पराओं का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहों, मान्यताओं एवं प्रतिबद्धताओं को महावीर ने आन्तरिक
भगवान् महावीर ने परिग्रह बताया और उससे मुक्त होने की
मानव-चेतना को प्रेरणा दी । महावीर ने स्पष्ट कहा कि विश्व
वैचारिक परिग्रह से की मानव जाति एक है । उसमें राष्ट्र,
__ मुक्त कर उसे समाज एवं जातिगत उच्चता-नीचता जैसी
विशुद्ध अपरिग्रह कोई चीज नहीं । कोई भी भाषा शाश्वत एवं
भाव पर पवित्र नहीं है । स्त्री और पुरुष आत्मदृष्टि
प्रतिष्ठित किया। से एक है, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है । इसी तरह के अन्य सब सामाजिक तथा
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