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________________ उसकी इच्छा का, तृष्णा का अन्त नहीं आ सकता । क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है, असीम है ।" सुवण्ण-रुपस्स उ पबया भवे, सिया हु केलास-समा असंखया । नरस्स लुध्दस्स न तेहि किंचि, इच्छा हु आगास-समा अणन्तिया ।। __ परन्तु आवश्यकताएँ सीमित हैं, और सीमित होने के कारण उनकी पूर्ति भी सहज ही हो जाती है । आवश्यकताओं के लिए मनुष्य को रात-दिन मानसिक-वैचारिक चिन्ता में व्यस्त नहीं रहना पड़ता । चौबीसों घंटे धन का ढेर लगाने की योजनाएँ तैयार करने में ही नहीं लगा रहना पड़ता । सच्चा धनवान वही अतः आवश्यक पदार्थों में सन्तुष्ट रहने है, जिसे सब तरह वाला व्यक्ति परिग्रह की सीमा से दूर रहता से सन्तोष है। है। भले ही उसके पास बाह्य साधन कम होते हैं परन्तु सन्तोष एवं शान्ति का धन उसके पास अपरिमित होता है और आचार्य शंकर के शब्दों में- 'वस्तुतः सच्चा धनवान वही है, जिसे सब तरह से सन्तोष है ।' क्योंकि वह धनवान की तरह असन्तोष एवं अशान्ति की आग में नहीं जलता है । वह दूसरों को ठगने की उधेड़-बुन एवं भोले लोगों को किस तरह जाल में फँसा कर या चकमा देकर उनकी जेबें कैसे खाली कराई जाएँ इसके लिए नये-नये आविष्कार एवं प्लान बनाने की चिन्ताओं से मुक्त रहता है । इसलिए वह सब तरह से शान्तिमय जीवन जीता है । अनावश्यक धन-सम्पत्ति एवं पदार्थों का संग्रह करना ही परिग्रह नहीं है, बल्कि अनावश्यक विचारों का संग्रह करना भी परिग्रह है। गांधीजी ने भी कहा है- “जो मनुष्य अपने दिमाग में निरर्थक ज्ञान ह्स 12
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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