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जब साधु भी आवश्यकताओं से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता, तब गृहस्थ उनसे कैसे निवृत्त हो सकता है ? वह अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र से सम्बद्ध है । गृहस्थ अवस्था में रहते हुए वह इनसे अलग नहीं रह सकता । इसलिए वह अपने दायित्व एवं उसके लिए आवश्यक आवश्यकताओं को कैसे भूल सकता है ? अतः वह आवश्यकताओं की पूर्ति तो करता है, परन्तु इच्छाओं को रोकने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि श्रावक के व्रत को 'इच्छा परिमाण व्रत' बतलाया है, ‘आवश्यकता परिमाण व्रत' नहीं । इससे यह स्पष्ट होता है कि वस्तु का ग्रहण करना मात्र परिग्रह नहीं है । परिग्रह वस्तु से नहीं, मनुष्य की इच्छा, आकांक्षा एवं ममत्व भावना में है । अतः परिग्रह का अर्थ हैइच्छा, आकांक्षा, तृष्णा एवं ममत्व - मूर्च्छा भावना ।
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