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________________ इतना उलझा हुआ है कि एक उलझन के सुलझते ही दूसरी उलझन सामने आ जाती है । उसका कभी भी अन्त नहीं होता । अतः हमें यह समझ लेना चाहिए कि आवश्यकता अलग है और इच्छा, आसक्ति एवं आकांक्षा कुछ अलग है। आज लोगों में परिग्रह को लेकर जो संघर्ष या विवाद चल रहा है, वह इच्छा और आवश्यकता के बीच के अन्तर को नहीं समझने के कारण ही उत्पन्न हुआ है। यह नितान्त सत्य है कि जैन-धर्म आदर्शवादी है, निवृत्ति प्रधान है । वह साधक को निवृत्ति की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है । परन्तु वह कोरा आदर्शवादी नहीं है, यथार्थवादी भी है । कोरा आदर्श केवल कल्पना के आकाश में उड़ानें भरता रहता है। केवल कल्पना के आकाश में विचरने से काम नहीं चलता । कल्पना के आकाश में राकेट से भी तीव्र गति से उड़ने वाले की अपेक्षा, धरती पर मन्थर गति से चलने वाला अच्छा है । कम से कम वह रास्ता तो तय करता है। जैन धर्म का आदर्श केवल कल्पना का आदर्शवाद नहीं है । वह आदर्श के साथ यथार्थ का भी समन्वय करता है। वह निवृत्ति के साथ यथार्थ को भी स्वीकार करता है । वह साधक के लिए आवश्यकताओं को पूरा करना परिग्रह नहीं मानता । वह आवश्यकता से नहीं, इच्छा से निवृत्त होने का उपदेश देता है । संसार से मुक्त होने की साधना करने वाला साधु भी आवश्यकताओं का पूर्णतः त्याग नहीं कर सकता । इसलिए आगम में वस्तु एवं आवश्यक पदार्थों को परिग्रह नहीं कहा है । मूर्छा और आसक्ति को परिग्रह कहा है ।' तत्त्वार्थ सूत्र में भी मूर्छा को ही परिग्रह बताया है ।। 1. मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा । 2. मूर्छा परिग्रहः । - दशवैकालिक सूत्र - तत्त्वार्थ सूत्र
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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