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________________ ही छोटा है । आध सेर धान से भी भर सकता है किन्तु मन का पेट इतना विशाल है कि वह कभी भी भर नहीं पाता । मेरु पर्वत जितने बड़े मिष्ठान्न के भण्डार से भी उसकी तृप्ति नहीं हो पाती । तन की तृष्णा तनिक है, आध पाव जे सेर । मन की तृष्णा अनन्त है, गिरते मेर के मेर ।। यह मन की भूख ही है, जिसे धरती के हजारों-हजार चक्रवर्ती और स्वर्ग के इन्द्रों के साम्राज्य से भी भरना सम्भव नहीं है । चमड़े के पेट का घेरा इतना क्षुद्र है कि उसके भरने पर आखिर रोक लगानी ही पड़ती है, किन्तु मन का पेट ऐसा है कि उसमें चाहे जितना भरा जाए, वह कभी भी भरता नहीं । जलती अग्नि में कोई यह सोचकर घी डाले कि यह शान्त हो जाएगी, तो यह उल्टी बात होगी । वह तो पहले से भी कई गुना अधिक तेज प्रज्वलित होगी । ठीक इसी प्रकार का विचार इच्छाओं की पूर्ति करके उन्हें शान्त करने का है । मनु-स्मृति में कहा है न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्ण-वत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। अग्नि जैसे घी से अधिक प्रज्वलित होती है, वैसे ही कामनाओं की अग्नि भी पूर्ति के प्रयत्नों से और भी वेगवती होकर जलती है । आनन्द कहाँ है ? कभी-कभी सोचता हूँ कि आखिर आनन्द कहाँ है, किसमें है ? इच्छाओं की अतृप्ति में भी बैचेनी है, अशान्ति है और उनकी पूर्ति के प्रयत्न में भी कष्ट है । पूर्ण होने के बाद और भी कष्ट होता है- जब एक के बाद दूसरी दस और नई इच्छाएँ पैदा हो जाती हैं । इस प्रकार 185
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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