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एवं धनी बनने की इच्छा रखता है और इसी चाह ने समग्र विश्व को संघर्षों की क्रीड़ा-स्थली बना रखा है। इस चाह ने जैसे व्यक्तिगत जीवन को अशान्त और असन्तुष्ट बना दिया है, उसी प्रकार राष्ट्रों को भी अशान्त और असंतुष्ट बना रखा है। नतीजा जो है, वह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है । न व्यक्ति सुखी है, न राष्ट्र ही।
आखिर इस परिस्थिति का अन्त कहाँ है । किसी सीमा पर पहुँच कर व्यक्ति और राष्ट्र अपनी दौड़ समाप्त करेंगे या नहीं ? इस सम्बन्ध में आज के मनुष्य को गंभीर विचार करना चाहिए।
कई लोग कहते हैं- संतोष तो नपुंसकों का शास्त्र है । संतोष की शिक्षा ने मनुष्य को हतवीर्य, उद्यमहीन और अकर्मण्य बना दिया है । वह जीवन की प्रगति में जबरदस्त बाधक है ।
मैं कहता हूँ- भौतिकवाद के हिमायती 6 जहाँ संतोष को कोई | और ऐसा कहने वाले लोग जीवन की कला से स्थान नहीं, वहाँ
अनभिज्ञ है । उन्होंने जीवन के 'शिव' को विराम कहाँ और
पहचाना ही नहीं है । वे भौतिक विकास और विश्राम कहाँ ?
प्रगति को ही महत्व देते हैं और जीवन की सुख-शांति की उपेक्षा करते हैं । इस दृष्टिकोण
का अर्थ होगा- अनन्त-अनन्त काल व्यतीत हो जाने पर भी पारस्परिक संघर्षों का जारी रहना, प्रतिस्पर्धाओं का बढ़ते जाना और दौड़-धूप बनी रहना । जहाँ संतोष को कोई स्थान नहीं, वहाँ विराम कहाँ और विश्राम कहाँ ? वहाँ दौड़ना और दौड़ते रहना ही मनुष्य के भाग्य में लिखा है, तथा उसे इतना भी अवकाश नहीं है कि वह अपनी दौड़ के नतीजे पर घड़ी भर सोच-विचार कर सके । संतोष को कायरों का लक्षण समझना, तो और भी बड़ा अज्ञान
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