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________________ लालसाओं को आगे बढ़ने से नहीं रोकता, तो मैं कैसे रोकूँ ? परन्तु जीवन का यह आदर्श नहीं है । आपको तो तात्त्विक दृष्टि से विचार करना चाहिए । तात्त्विक दृष्टि से विचार किये बिना परमार्थ की उपलब्धि नहीं हो सकती । दूसरों का अनुकरण अच्छा नहीं है । अगर आपने समझ लिया है कि एक तो क्या, अनन्त इच्छाओं की कहीं समाप्ति नहीं है, लालसाओं जीवन धारण करके | का कहीं अन्त नहीं है, एक तो क्या, अनन्त भी तृष्णा की पूर्ति | जीवन धारण करके भी तृष्णा की पूर्ति नहीं नहीं हो सकती है। हो सकती है और इनके वशीभूत होकर मनुष्य कहीं भी शान्ति नहीं पा सकता है, अपना निर्णय अपने फिर दूसरों का अनुकरण क्यों करते हो ? विवेक से करो। दूसरे तृष्णा की ज्वालाओं में पतंगों की तरह कूद रहे हैं, तो तुम क्यों उनके पीछे कूदते हो ? जब तुम समझते हो कि यह मार्ग हमें अभिष्ट लक्ष्य पर नहीं पहुँचा सकता और लक्ष्य से दूर और दूरतर ही ले जाकर छोड़ देने वाला है, तो क्यों आँख मींच कर दूसरों के पीछे लगते हो ? तुम्हारी तत्त्व दृष्टि ने जो मार्ग तुम्हें दिखाया है, उसी पर चलो । अपना निर्णय अपने विवेक से करो । तुम अंधानुकरण न करो, आँख खोलकर सही रास्ते पर चलो । सही रस्ते पे चलोगे, तो तुम्हारा अनुकरण करने वाले भी मिल जाएँगे। आज की दुनियाँ में परिग्रह के लिए जो अविश्रान्त दौड़-धूप हो रही है, उसके अन्यान्य कारणों के साथ अनुकरण भी एक मुख्य कारण है । आज धनी बनने की होड लग रही है । प्रत्येक एक-दूसरे से बड़ा 171
SR No.003430
Book TitleAnand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSugal and Damani Chennai
Publication Year2007
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
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