________________
उनकी वाणी भी बड़ी तेजस्वी मालूम होती है । उसमें त्याग और वैराग्य की ज्वालाएँ जलती हुई मालूम होती हैं, किन्तु वे ज्वालाएँ आती हैं और बुझ जाती है । इसका कारण यही है कि उन्होंने सिंहासन पर बैठकर अद्वैतवाद और परमब्रह्म की बातें की हैं - एक शक्तिशाली और वैभवसम्पन्न नरेश के रूप में रहकर ही उन्होंने संसार को वैराग्य का उपदेश दिया, जिससे जनता पर उनके विचारों का स्थायी प्रभाव नहीं पड़ सका ।
इस प्रकार भगवान् महावीर से पहले भी वेदान्त में ये बातें कही गयीं - यह संसार क्षणभंगुर है, नश्वर है; मगर वेदान्त के इस उपदेश को देने वाले स्वयं में त्याग की भावना न जगा सके । वे राजा-महाराजाओं के दरबार में पहुँचे और बदले में सोने से मढ़े सींगों वाली हजार-हजार गायें लेकर इस महान् सन्देश को देकर चले आए। यही कारण है कि वे इस महान् सन्देश की अमिट छाप जनता के हृदय में न लगा सके ।
तो यह भी जीवन का कोई आदर्श है ? त्याग और वैराग्य का उपदेश देने चलें और सोने से मढ़े सींगों वाली हजारों गायें ले आएँ । जनता के मानस पर उस उपदेश का असर हो ही कैसे सकता था ? और हुआ भी नहीं । इसलिए वेदान्त के एक आचार्य को भी कहना पड़ा
I
कलौ वेदान्तिनो भान्ति, फल्गुने बालका इव ।
इस कलि-काल में, संसार की वासनाओं में फँसे हुए लोगों के मुँह से वैराग्य - वृत्ति की बातें सुनते हैं, तो फाल्गुन का महीना याद आ जाता है । फाल्गुन में, होली के समय बालक पागल से हो जाते हैं और कभी घोड़े पर और कभी गधे पर सवार होते हैं । फाग खेलने वालों के वेश भी चित्र - विचित्र हो जाते हैं ।
उनके इस कथन का अभिप्राय यह है कि जो उपदेशक जनता
85