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श्रध्दा - सुमन
आदिदेव है ऋषभ जिनेश्वर, ज्ञान-ज्योति का तू दिनकर ।
प्रथम प्रकाश उतारा तूने,
तमसावृत्त इस धरती पर ।।
भूख- भूख का गूंज रहा था,
कितना दारूण भीषण स्वर ।
कर्मयोग का तब तूने ही,
दिया बोध जग - मंगलकर ।।
पुण्यकर्म वह जिसके अन्दर,
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सुरभित हो जन-जन का हित ।
तेरा यह सन्देश आज भी,
धरा स्वर्ग तक अभिनन्दित ||
तू सबका था, सब थे तेरे,
एक दृष्टि थी समरस की ।
अतः चिरन्तन वेदों तक में,
गूंजित गाथा तब यश की ।।
नग्नदेह हिमगिरि - शिखरों पर,
ध्यान धरा अविचल तूने ।
सोया अन्तर जिनवर जागा, पाया निज में जिन तूने ।।
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