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नौवाँ अध्याय
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२३-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार—ये विनय के चार भेद हैं।
२४–आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्षक, ग्लान, गण, कुल,संघ, साधु और समनोज्ञ—इस तरह दस प्रकार का वैयावृत्य है।
२५-वाचना, पृच्छाना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश-ये पाँच स्वाध्याय के भेद हैं।
२६–बाह्य और आभयन्तर उपाधि का त्याग-इस प्रकार व्युत्सर्ग के दो भेद हैं।
२७-उत्तम संहनन वाले व्यक्ति का किसी एक विषय में अन्त:करण की वृत्ति का निरोध=टिकाये रखना-ध्यान है।
२८—वह अनतर्मुहूर्त पर्यंत रहता है।
२९-आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल-ये चार प्रकार के ध्यान हैं।
३०–उनमें से पर अर्थात् अन्तिम दो मोक्ष के कारण हैं।
३१-अप्रिय वस्तु के प्राप्त होने पर उसके वियोग के लिए सतत चिन्ता रखना, प्रथम आर्तध्यान है।
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