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आठवा अध्याय
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१८-आयुष्कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम हैं। १९--वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है। २०-नाम और गोत्र की जघन्य स्थिति आठ मूहूर्त है।
२१-बाकी के पाँच अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्वराय, मोहनीय और आयुष्क की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण है।
२२-विपाक अर्थात् विविध प्रकार के फल देने की शक्ति ही अनुभाव है।
२३-वह अनुभाव कर्मों के अपने-अपने नाम के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकृति स्वभाव के रूप में वेदन किया जाता है।
२४-उससे अर्थात् वेदन से निर्जरा होती है।
२५–कर्म (प्रकृति) के कारणभूत सूक्ष्म, एक क्षेत्र को अवगाहन करके रहे हुए तथा अनन्तानन्त प्रदेश वाले पुद्गल योगविशेष से सभी ओर से सभी आत्मप्रदेशों में बन्ध को प्राप्त होते हैं।
२६.-सात-वदेनीय, सम्यक्त्व-मोहनीय, हास्य, रति, पुरुषवेद, शुभ-आयु, शुभ-नाम और शुभ-गोत्र-इतनी प्रकृतियाँ ही पुण्यरूप हैं, बाकी की सभी पापरूप हैं।
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