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________________ सातवाँ अध्याय F७ १७–तथा वह मारणान्तिक संलेखना का आराधक भी होता है। १८-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, और अन्यदृष्टिसंस्तव, ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार है। १९-व्रतों और शीलों (गुणवतो और शिक्षाव्रतों) के पाँच-पाँच अतिचार हैं। वे क्रमश: इस प्रकार है २०-बन्ध, वध = दण्ड आदि से ताड़न, छविच्छेद, अतिभार का आरोपण और अन्न-पान का निरोध, ये पाँच अतिचार प्रथम अणुव्रत के हैं। २१-~-मिथ्योपदेश, रहस्याभ्याख्यान-असत्य-दोषारोपण, कूट-लेख की क्रिया, न्यास का अपहार और साकारमन्त्रभेद गुप्त बात प्रकट करना-ये पाँच अतिचार दूसरे अणुव्रत के हैं। २२-स्तेनप्रयोग, स्तेन-आहृतादान, विरुद्धराज्य का अतिक्रम, हीन= न्यून-अधिक मानोन्मान और प्रतिरूपक =नकली वस्तु का व्यवहार, ये पाँच तीसरे अणुव्रत के अतिचार हैं। २३-परविवाहकरण, इत्वरपरिगृहीतागमन, अपरिगृह्मतागमन, अनंगक्रीड़ा और तीव्रकामाभिनिवेश, ये पाँच अतिचार चौथे अणुव्रत के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003426
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year2001
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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