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________________ चौथा अध्याय - - - - - - - - - - - - - ७-प्रथम के दो निकायों में-भवनपति और व्यन्तर में, कृष्णा, नील, कापोत और तेज, ये चार लेश्याएँ होती हैं। ८--ऐशान स्वर्ग तक के देव मनुष्यों के समान शरीर से विषयसुख भोगने वाले होते हैं। ९-शेष दो दो कल्प के देव क्रमश; स्पर्श, रूप, शब्द और सङ्कल्प द्वारा विषयसुख भोगते हैं। १०–शेष ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के देव विषयसेवन से रहित हैं। ११–भवनवासी देव-(१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) विद्यत कुमार, (४) सुपर्णकुमार, (५) अग्निकुमार, (६) वायुकुमार, (७) स्तनितकुमार, (८) उदधिकुमार, (९) द्वीपकुमार, (१०) दिक्कुमार के भेद से दस प्रकार के हैं। १२-(१) किन्नर, (२) किम्पुरुष, (३) महोरग, (४) गन्धर्व, (५) यक्ष, (६) राक्षस, (७) भूत और (८) पिशांच, ये आठ प्रकार के व्यंतरदेव होते हैं। । १३-ज्योतिष्क देव-(१) सूर्य, (२) चन्द्रमा, (३) ग्रह, (४) नक्षत्र, (५) और प्रकीर्ण-तारे--इस तरह पाँच प्रकार के हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003426
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year2001
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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