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दूसरा अध्याय
२३
४३---ये दोनों शरीर सब संसारी जीवों के होते हैं।
४४-एक जीव के एक साथ तैजस और कार्मण से ले कर चार शरीर तक—विकल्प से हो सकते हैं।
४५--केवल अंतिम-कार्मण शरीर उपभोग अर्थात् सुख-दु:ख आदि के अनुभव से रहित है।
४६---पहिला औदारिक शरीर गर्भ और सम्मूर्छन जन्म से पैदा होने वाले जीवों के होता है।
४७–उपपात जन्म से होने वाले जीवों-नारकों और देवों के वैक्रिय शरीर होता है।
४८-तपोविशेष से लब्धिप्राप्त जीवों को भी वैक्रियशरीर प्राप्त होता है।
४९-आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और व्याघातरहित होता है तथा यह चौदह पूर्वधारी मुनियों के ही होता है।
५०–नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक ही होते हैं। ५१—देव नपुंसक नहीं होते हैं।
५२-उपपात जन्म से होने वाले देव, नारक तथा चरमशरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्ष की आयु वाले यौगलिक, ये सब अनपवर्तनीय आयुष्य वाले ही होते हैं।
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