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________________ पहला अध्याय ----------------------------------------- - - - - - - - - - - - - - - - २४—ऋजुमति और विपुलमति—ये दो मन:पर्यायज्ञान के भेद है। २५-ऋजुमति और विपुलमति में विशुद्धि (शुद्धता) और अप्रतिपात (एक बार होने के बाद फिर नष्ट न होना), इन दोनों की अपेक्षा से अन्तर है। २६—विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय के द्वारा अवधि और मन:पर्याय का अन्तर जानना चाहिए। २७–मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवत्ति-ग्राह्यतासर्वपर्यायरहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती २८-अवधिज्ञान की प्रवृत्ति सर्वपर्यायरहित केवल रूपी मूर्त द्रव्यों में होती है। २९-मन:पर्यायज्ञान की प्रवृत्ति उस सर्वपर्यायरहित रूपी द्रव्य के अनन्तवें भाग में होती है। ३०--केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों में और सभी पर्यायों में होती है। ३१-एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। ३२–मति, श्रुत और अवधि ये तीनों विपरीत अर्थात् अज्ञानरूप भी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003426
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year2001
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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