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________________ दसवाँ अध्याय २५ - - - - - - दसवाँ अध्याय १.---मोह के क्षय से और फिर ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के क्षय के केवल ज्ञान प्रकट होता है। २-बन्धहेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है। ३--सम्पूर्ण कर्मो का क्षय होना ही मोक्ष है। ४—क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन और सिद्धत्व भाव के सिवाय औपशमिक आदि भावों तथा भव्यत्व के अभाव से मोक्ष प्रकट होता है। ५-सम्पूर्ण कर्मों के क्षय होने के बाद मुक्तजीवन तुरन्त ही लोक के अन्त तक ऊँचा चला जाता है। ६-पूर्व के प्रयोग से, संग के अभाव से, बन्धन के टूटने से और गति = मोक्षार्थ होने वाली गति के परिणाम से मुक्तजीव ऊँचा जाता है। ७-क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या, अल्प-बहुत्व-इन बारह प्रकारों से सिद्ध जीवों का विचार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003426
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year2001
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size2 MB
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