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________________ ७०/ सत्य दर्शन के साथ-साथ आगे आने की (आसव की) जो वासनाएँ हैं, वे कम होती जाएँगी और पवित्रता और ज्यादा हो जाएगी। कोई आदमी ऋणी है। वह आगे कम ऋण लेता है और ज्यादा चुकाता है, तो एक दिन उसका सारा ऋण उतर जाएगा। तो ऐसी स्थिति कब पैदा होती है ? शास्त्रकार कहते हैं-जब-जब तेरे अन्दर समभाव जागृत रहेगा, राग-द्वेष की मलिन भूमिका से ऊपर उठेगा और इस परम सत्य को प्राप्त कर लेगा कि-"तू संसार के भोगों में बँधने के लिए नहीं है, उनमें तुझे आसक्ति नहीं होनी है, तब तेरा ऋण उतरना शुरू हो जाएगा।" मक्खी को तो आप सदा देखते ही हैं। वह शक्कर पर बैठती है। जब तक बैठती है, तब तक बैठती है और शक्कर का उपयोग करती है। और जरा-सा हवा का झोंका आया कि उड़ कर चली भी जाती है। इसी रूप में जो जीवन का उपयोग कर रहे हैं और संसार के सुख-दुःख भोग रहे हैं--किन्तु विकारों में बँधते नहीं हैं, आसक्ति के कीचड़ में फँसते नहीं हैं, वही साधक आत्मा का ऋण चुकाने में आत्मा का बोझा उतार फैंकने में समर्थ होते हैं। अन्तःकरण में ज्यों-ज्यों उदासीनता की वृत्ति विकसित होती चली जाएगी, कर्मों के आने का मार्ग क्षीण होता जाएगा और जैसे-जैसे कर्मों के आने का मार्ग क्षीण होता जाएगा, मोक्ष होता जाएगा। सम्यग्दृष्टि की भूमिका में निरन्तर जागृति बनी रहती है । श्रावक के तो असंख्य-असंख्य कर्मों की निर्जरा होती रहती है। सम्यक्त्व-रत्न का प्रकाश जैसे-जैसे बढ़ता जाता है, ऊँची भावनाओं का तेज प्रखर होता चला जाता है। चढ़ी हुई धूल उड़ कर साफ होती जाती है। साधक ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है, उसकी गति में तीव्रता आती रहती है। इस प्रकार कर्मों के आगमन और बंधन की मात्रा कम होती चलती है और जाने की अर्थात् तोड़ने की मात्रा निरन्तर बढ़ती चली जाती है । एक समय ऐसा आ जाता है कि पहले के संचित सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं और नवीन बन्धन का सर्वथा अभाव हो जाता है। वही स्थिति मोक्ष या निर्वाण की स्थिति कहलाती आचार्य शंकर कहते हैं प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्ना ऽप्युत्तरैः श्लिष्यताम् । प्रारब्धं त्विह भज्यतामथ परब्रह्मणा स्थीयताम ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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