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________________ सत्य दर्शन/६९ है कि किसी भी अवस्था में हम विषयभाव के शिकार न बनें । सुख आया है, तो भले ही आए और दुःख आया है, तो भले ही. आए। आम तौर पर दुःखी जनों को उपदेश दिया जाता है कि समभाव धारण करा, धीरज रखो और दुःख का पहाड़ आ पड़ने पर विकल न बनो। किन्तु जो धनी हैं और संसार-भर का ऐश्वर्य लेकर बैठे हैं और गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, उन्हें भी यही उपदेश दिया जाना चाहिए । जैन धर्म का संदेश आज पिछड़ गया है, किन्तु उसने कहा था-वह चक्रवर्तियों, सम्राटों और धन कुबेरों से कहने चला था कि धन मिला है, असीम ऐश्वर्य मिला है, सुख मिला है, तो उसे समभाव से भोगो जो कर्म उपार्जित किए जा चुके हैं, उन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं है, अतएव उन्हें भोगते हुए भी समभाव से न चूको। इस प्रकार जैनधर्म दुःख पाने वालों से कहता है कि-रोओ मत, और सुख में मस्त बने हुओं से कहता है-हँसो मत । इस प्रकार जीवन चाहे फूलों के मार्ग पर चल रहा हो अथवा काँटों के मार्ग पर चल रहा हो, सुखमय हो अथवा दुःखों से व्याप्त हो, जैनधर्म एक ही संदेश लेकर चला है। जो कुछ हो रहा है, होने दो, हर्ष और विषाद की परछाईं आत्मा पर मत पड़ने दो। जो भी सुख या दुःख हैं. हमारी आत्मा के कल्याण के लिए हैं, इन्हें भोग कर ही आत्मा पवित्र बन सकेगी, प्रत्येक दशा में समभाव ही आत्मा को विमल और विशुद्ध बना सकेगा। यदि समभाव नहीं आया है, तो सुख और दुःख, दोनों ही आत्मा को बन्धन में डालते हैं। दोनों से बन्धन और भी मजबूत होते हैं। ___ जैन-धर्म के अनुसार आत्मा चाहे नरक में जाए या स्वर्ग में जाए, वहाँ जाते ही वह कर्मों को क्षय करना आरम्भ कर देता है। ज्यों-ज्यों कर्मों को भोगता जाता है, कर्मों का क्षय होता जाता है। यह भोगना और क्षय होना निरन्तर जारी रहता है। जैनधर्म ने कहा है कि प्रतिक्षण कर्मों का क्षय होता जा रहा है और यदि साधक सावधान नहीं है, तो निरन्तर बँधते भी जा रहे हैं। हौज एक तरफ से खाली हो रहा है और दूसरी तरफ से भर रहा है। हमारे जीवन की ठीक यही गति है। कर्म एक तरफ से खाली हो रहे हैं और दूसरी तरफ से भर रहे हैं । यह प्रक्रिया निरन्तर चालू रहती है। ऐसी स्थिति में पवित्रता का मार्ग किस प्रकार मिल सकता है ? जब आना कम और जाना अधिक. होता है, तब आत्मा की पवित्रता बढ़ती है। और जब जाना ज्यादा होता है, तो क्षय होने . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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