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________________ ५८ / सत्य दर्शन धर्म का निर्णय प्रज्ञा-बुद्धि से होता है, विचार, विवेक और चिन्तन से होता है। यह विवेक जिसे प्राप्त हो गया है, उसके सामने शास्त्र सच्चा शास्त्र बनता है और उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार के विवेक के अभाव में कोई कितना ही क्यों न पढ़ ले, उसे सम्यग्ज्ञान नहीं होगा। ___ मुझे एक विदेशी सज्जन मिले। उन्होंने भगवती और आचारांग आदि पढ़े थे। वे बातें करने लगे, तो अहिंसा के विषय में बड़ी सूक्ष्म-सूक्ष्म बातें करने लगे। मैंने उनसे पूछा-"आपने आगमों का चिन्तन किया है और समय लगाया है और रहस्य जानने का प्रयास किया है, सो किस लिए ? आपको विश्वास है, यह सब क्या है ?" वह बोले- "हमें करना क्या है ? हमने जो भारतीय दर्शन और जैन-दर्शन का अध्ययन किया है, सो इसलिए कि विश्वविद्यालय में कोई अच्छा-सा 'पद' मिल जाए।" तो जहाँ भगवती और आचारांग के ज्ञान के पीछे यह दृष्टिकोण है, जो प्रयत्न किया गया है, उसके पीछे सत्य की उपलब्धि की दृष्टि नहीं है और केवल सांसारिक स्वार्थ की भावना है, वहाँ एक साधारण गृहस्थ के मुकाबिल में भी, जिसने इन शास्त्रों का नाम ही सुना है या जिसका अध्ययस लूला-लँगड़ा है, जिसने कभी बीरीकी से शास्त्रों को नहीं पढ़ा है, किन्तु साधक है, ऐसा एक बड़े से बड़ा विद्वान भी सम्यग्ज्ञानी नहीं कहला सकता। अभिप्राय यह है कि ससम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान के मूल में सत्य के लिए तत्परता और अतत्परतो ही प्रधान है। सम्यग्ज्ञानी सत्य की राह पर और सत्य की प्राप्ति के लिए ही चलता है। सत्य की उपलब्धि ही उसका एकमात्र लक्ष्य है। सत्य उसके लिए सर्वस्व है। सत्य के लिए वह सभी कुछ समर्पित कर सकता है। इतनी तैयारी के बाद भी कभी कोई साधक प्रमाद के कारण सत्य से भटक सकता है, असत्य की राह पर चल सकता है, फिर भी वह असत्य का राहगीर नहीं कहलाएगा, क्योंकि वह अपनी समझ में सत्य की ही राह पर चल रहा है और जब भी उसे मालूम हो जाएगा कि वह अपने मार्ग से भटक गया है, तत्काल अपना मार्ग बदल लेगा। पूर्वग्रह, अहकार या प्रतिष्ठा-भंग आदि का भय उसे क्षण-भर के लिए भी राह बदलने से नहीं रोक सकेगा । शास्त्र में कहा-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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