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सत्य दर्शन / ५७ नहीं, ऐसा कुछ नहीं होता। उसके ज्ञान का विपर्यास उसकी दृष्टि के विपर्यास होने में ही है।
मिथ्यादृष्टि को किसी सम्प्रदाय के साथ नहीं बाँधा जा सकता । अमुक सम्प्रदायवादी सम्यग्दृष्टि है और अमुक सम्प्रदायवादी मिथ्यादृष्टि है, अथवा फलाँ व्यक्ति सम्यग्दृष्टि और फलाँ मिथ्यादृष्टि है, यह निर्णय करना हमारा अधिकार नहीं । हमारा अधिकार सिर्फ विचार करना है। सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन का किसी भी सम्प्रदाय, परम्परा या पंथ के साथ सम्बन्ध नहीं । जैन - कुल में जन्म लेने से ही कोई सम्यग्दृष्टि नहीं हो जाता और संभव है, कोई जैन - कुल में जन्म न लेकर भी सम्यग्दृष्टि हो जाए। तब उसे महान् प्रकाश प्राप्त होता है और उसका अज्ञान भी ज्ञान बन जाता है।
अभिप्राय यह है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञान में रहता है, उसके चिन्तन के पीछे विवेक नहीं है, इसी कारण वह अज्ञानी कहलाता है। कदाचित् उसे जानकारी हासिल हो गई है और उसने किसी सत्य का पता भी लगा लिया है, तब भी विवेक के अभाव में उसका सत्य, असत्य है। इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि पुरुष जब शास्त्रों का मनन करने को चलता है, तो संभव है उसका निर्णय तीव्र न हो, तेज न हो, और संभव है कि वह कभी गलत रूप भी ग्रहण कर ले, फिर भी शास्त्रकार कहते हैं कि वह सम्यग्दृष्टि ही है। उसके सम्यक्त्व को कहीं चोट नहीं लगी, क्योंकि उसकी दृष्टि सत्य की दृष्टि है। वह सत्य ज्ञान लेकर चलता है और विचार करता है, और विचार करते-करते किसी निर्णय पर पहुँच जाता है, किन्तु संभव है कि उसका निर्णय सही न हो, फिर भी उसने सच्चे श्रद्धान का रास्ता मालूम कर लिया है। अतएव यह नहीं कहा जा सकता है कि वह मिथ्यादृष्टि हो गया और सम्यग्दृष्टि नहीं रहा है। जब कोई विशेषज्ञ उसे मिलता है तो विनम्र भाव से वह पूछता है और जब समझ लेता है कि उसने गलती की थी, तो वह अपने अहंकार और अपनी प्रतिष्ठा को आड़े नहीं आने देता। वह सत्य के पीछे इन सब को बलिदान कर देता है और उस सत्य को सहज भाव से स्वीकार कर लेता है । आगम में धर्म का निर्णय करने के सम्बन्ध में कहा है
"पन्ना समिक्खए धम्मं तत्तं तत्त-विणिच्छियं ।"
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उत्तराध्ययन २३/२५
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