________________
४
दुर्गमपथस्तत् कवयो वदन्ति
जहाँ तक वाणी के सत्य का सम्बन्ध है, कोई खास द्वन्द्व नहीं है; आपके या हमारे सामने कोई संघर्ष नहीं है। फिर भी कुछ अटपटी बातें हैं, जो हमारे सामने आती रहती हैं और जिनके लिए विवेक एवं विचार की अपेक्षा रहती है। बोलने के सत्य को लेकर भी कभी-कभी टेढ़ी समस्याएँ उपस्थित हो जाती हैं और इसके लिए हमें शास्त्रों का निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है।
आम तौर पर सत्य का विषय एक सरल विषय समझा जाता है और झटपट उस पर अपना निर्णय घोषित कर दिया जाता है; किन्तु जहाँ तक सैद्धान्तिक प्रश्न है, मनुष्य । के चिन्तन और मनन का प्रश्न है, वह विषय इतना सरल नहीं है । सत्य की बात ऐसी नहीं कि दो टूक निर्णय दे दिया जाए और फिर वह बात वहीं समाप्त हो जाए । हजारों वर्षों से मनुष्य निरन्तर चिन्तन करता आ रहा है और महापुरुषों से रोशनी लेता आ रहा है; फिर भी अँधेरा उसको घेर कर खड़ा हो जाता है, उसे मार्ग मिलना कठिन हो जाता है ।
हमें सत्य को क्यों ग्रहण करना चाहिए ? हमको या हमारे साथियों को सत्य मिला है या नहीं ? या जिन्होंने कहा है, वह सत्य है अथवा नहीं ? आदि गम्भीर प्रश्न आज भी हमारे सामने खड़े हो जाते हैं ।
मैंने कहा है कि सत्य का मार्ग बहुत टेढ़ा है और जब हम सिद्धान्त पर विचार करने लगते हैं, सहज ही हमें मालूम होने लगता है कि हम चल रहे हैं, चलते जा रहे हैं, फिर भी निर्णय हम से बहुत दूर होता जाता है। ऐसी स्थिति में हम अपनी कुछ कल्पनाओं के बल पर सत्य और असत्य का निर्णय करने बैठ जाते हैं, तो हमारी कल्पनाएँ हमारे लिए अच्छा मार्ग नहीं बनाती हैं, बल्कि हमारे मार्ग को और टेढ़ा कर देती हैं और हम भटक जाते हैं। भारत के एक ऋषि ने कहा है
Jain Education International
'क्षुरस्य - धारा निशिता दुरत्यया, दुर्गमपथस्तत् कवयो वदन्ति ।'
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org