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________________ सत्य दर्शन / २९ ऐसा है कि समग्र जीवन तो क्या, एक दिन भी निकालना कठिन है। असत्य का उपासक भूख लगने पर घर जाकर यदि सत्य कह देगा, तो अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट हो जाएगा । अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए उसे असत्य ही बोलना पड़ेगा । वह कहेगा-नहीं, मुझे भूख नहीं है। या भूख के बदले प्यास और प्यास के बदले भूख कहेगा। ऐसी स्थिति में उसकी कैसी दुर्गति होगी, इस बात का अनुमान करना कठिन नहीं है। कदाचित वह घर वालों को जतला दे कि मैंने झूठ बोलने का प्रण किया है और मैं सब बातें उल्टी ही उल्टी कहूँगा, तो भी इतना सत्य बोलने के कारण वह अपनी प्रतिज्ञा से च्युत हो ही जाएगा। भूख की जगह प्यास और प्यास के बदले भूख कहते हुए भी उसे तो यही कहना होगा कि मैं सत्य ही कह रहा हूँ ! इस प्रकार असत्य के नियम के सहारे एक दिन भी निकलना मुश्किल है। असत्य-भाषी को बलात् सत्य का आश्रय लेना ही पड़ेगा। तो हमारा जीवन असत्य से घिरा हुआ अवश्य है, चारों ओर असत्य ही असत्य का वातावरण है, फिर भी उसका टिकाव सत्य पर ही है। कोई भी समाज और राष्ट्र असत्य के बल पर जीवित नहीं रह सकता। भगवान महावीर एक बहुत बड़ा सिद्धान्त लेकर आए थे। किसी भी प्राणी का जीवन सत्य के द्वारा ही टिक सकता है। उन्होंने जब सत्य बोलने की बात कही, तो पहले सत्य को सोच लेने की भी बात कही और फिर आचरण करने की । यानी जीवन के हर अंग में सत्य का प्रकाश आ जाना चाहिए, आगे बढ़ना चाहिए और उस चमकते हुए प्रकाश में ही जीवन की समस्या हल हो सकती है। दुर्भाग्य से आज हम सत्य बोलने की बात तो कहते हैं, परन्तु सत्य को सोचने की बात नहीं कहते, आचरण की बात भी भूल जाते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि हम पहले की और बाद की भूमिका को-'मनःसत्य और कायसत्य'-को छोड़ देते हैं । हम वचन के सत्य की पुकार गुंजाने लगे, किन्तु मन का और काया का सत्य नहीं होगा, तो इतनी गड़बड़ पैदा हो जाएगी कि हम वास्तविक सत्य को प्राप्त ही नहीं कर सकेंगे। मन के सत्य के बिना वचन का सत्य धोखा-मात्र साबित होता है। मन का सत्य और शरीर का सत्य हमारे पुराने आचार्यों ने एक कहानी कही है। एक आदमी ने भूल से एक गाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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