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________________ २८ / सत्य दर्शन यह एक साधारण-सी घटना मालूम होती है, मगर मैं समझता हूँ कि यह साधारण और छोटी घटना नहीं, वरन् महत्त्वपूर्ण घटना है। दवात के गिर जाने की गलती पिता अपने ऊपर और पुत्र अपने ऊपर ले रहा है। जिस परिवार में इस प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं, उसमें क्या कभी असत्य पनप सकता है ? ऐसे गृहस्थों के आसपास सत्य नहीं चमकेगा तो कहाँ चमकेगा ? उस बालक के मन में यह भावना उत्पन्न हुई होगी कि पिताजी देश के माने हुए अग्रणी हैं, बहुत ऊँचाई पर हैं, फिर भी अपनी भूल को स्वीकार करते हैं, उसको गर्व उत्पन्न हुआ होगा। इस प्रकार का गर्व मनुष्य को अन्तिम क्षण तक जूझ कर भी सत्य की रक्षा करने की प्रेरणा देता है। आम तौर पर सर्वत्र यही कहा जाता है कि सत्य बोलो, असत्य भाषण मत करो। मगर व्यवहार में हम देखते हैं कि सत्य बेचारा कोने में पड़ा सड़ रहा है। उसे ग्रहण करने के लिए कोई तैयार नहीं है। जीवन के क्षेत्र में आकर सत्य के सम्बन्ध में लम्बी-लम्बी बातें तो की, मगर अमल नहीं किया, तो सत्य का हमारे जीवन में क्या महत्त्व रहा ? लोग सत्य से डरते हैं और उसकी उपासना को कठिन समझते हैं । मगर मैं कहना चाहता हूँ कि सत्य और असत्य के आचरण में सत्य का आचरण सरल और असत्य का आचरण कठिन है। मान लीजिए, आज एक मनुष्य सत्य ही बोलने और असत्य न बोलने की प्रतिज्ञा ग्रहण कर लेता है। अब उसका जीवन पचास वर्ष, सौ वर्ष या इससे भी अधिक लम्बा क्यों न हो, वह अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहता हुआ उसे ठीक तरह व्यतीत कर सकता है। वह लड़खड़ाएगा नहीं और कहीं कठिनाई आएगी, तो उसे जीत लेगा। उसके जीवन में कोई बात उपस्थित नहीं होगी कि उसे प्राणों से हाथ धोना पडे । गाँधीजी और सत्य : __ इसके विपरीत, दूसरा आदमी कभी सत्य न बोलने का और सदा-सर्वत्र असत्य ही बोलने का नियम ले लेता है, तो उसका जीवन जितना लम्बा रास्ता तय करेगा ? आप विचार करेंगे तो पाएँगे कि इस प्रकार एक दिन भी निकलना कठिन हो जाएगा। एकान्त-भाव से सत्य का आचरण करते-करते तो पूर्वजों के जीवन के जीवन निकले हैं और गाँधीजी जैसे महापुरुष आज के युग में उन अतीत की जीवनियों की पुनरावृत्ति करते हुए अपना सत्यमय सफल जीवन व्यतीत कर चुके हैं, किन्तु असत्य का नियम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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