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________________ २०४/ सत्य दर्शन और प्रेम से दिया गया दान । मधुर-दान का लाक्षणिक अर्थ यही होता है, कि जो कुछ, जैसा कुछ और जितना भी दिया जाए, वह प्रेम, भक्ति और श्रद्धा के साथ ही दिया जाना चाहिए । श्रद्धापूर्वक दिया गया दान महान फल प्रदान करता है। ___मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ उपार्जित करता है, वह समाज और राष्ट्र से ही करता है। उपार्जन के साथ यदि देना नहीं सीखा और जो कुछ पाया उसका उपभोग स्वयं ही करने बैठ जाए, अपनी उपलब्धि में दूसरे को सहभागी न बना पाए, तो वह उपभोग पुण्य के लिए नहीं, पाप के लिए ही होता है। दान के रूप में अथवा सेवा के रूप में जो कुछ दिया जाता है, भविष्य में मनुष्य उसे फिर प्राप्त कर लेता है। लेकिन प्रेम और सद्भावना के साथ दिया गया दान महत्वपूर्ण माना जाता है। शास्त्रों में दान की महिमा और गरिमा के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहा गया है, और बहुत कुछ लिखा गया है। धन के बहुत से भेद-प्रभेद किए गए हैं, लेकिन सबसे बड़ा दान, आहार-दान माना गया है। क्योंकि सर्वप्रथम आहार-दान का ही आविष्कार हुआ था। अन्य दान उसी के विकसित रूप कहे जा सकते हैं। दान परम्परा के इतिहास में सर्व-प्रथम दान, आहार-दान ही है, क्योंकि जीवन को धारण करने के लिए आहार आवश्यक है। अतः उपनिषद् के ऋषियों ने कहा था-"अन्नं वै प्राणा:" अर्थात् अन्य ही प्राण है। क्षुधातुर व्यक्ति के समक्ष यदि धन सम्पत्ति अथवा वैभव विलास के साधन रख दिए जाएँ, तो वह उन्हें ग्रहण नहीं करेगा। क्योंकि उसके प्राण अन्न की पुकार कर रहे हैं । अपने 'प्राणों की रक्षा के लिए उसे भोजन की आवश्यकता है। मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी और प्रथम आवश्यकता भोजन की है। उसके बाद की आवश्यकता है-वस्त्र की और उसके बाद आवश्यकता है-रहने के लिए मकान की। मानव जीवन का क्रम भी यही रहा है-अशन. वसन, और भवन। संसार में जितने भी युद्ध हो चुके हैं, और भविष्य में जो युद्ध होंगे उनके मूल में ये तीन वस्तुएँ ही रहीं हैं, और इन तीनों में भी प्राथमिकता अशन को ही दी जा सकती है। संस्कृत साहित्य में एक लोकोक्ति है-"बुभुक्षितं न प्रतिभाति किंचित्" मनुष्य भूखा हो, उसके प्राण अन्न की मांग कर रहे हों, तब उसे आप समझाने बैंठ, कि पहले सुन्दर वस्त्र, दैदीप्यमान आभूषण स्वीकार करो, अथवा आप यह कहें, कि यह भव्य-भवन तुम्हारे रहने के लिए मैं तुम्हें प्रदान करता हूँ, तो वह भूख से पीड़ित व्यक्ति कहेगा, कि तुम पागल हो। इन सब चीजों की मुझे आवश्यकता नहीं है । इन वस्तुओं के बिना भी मैं जीवित रह सकता हूँ। मुझे आवश्यकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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