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________________ १८८ / सत्य दर्शन था। प्रकृति के सहज उत्पादन पर उसका जीवन टिका हुआ था। किन्तु अब यह अकर्मण्यता चलने की नहीं है। अब भोक्तृत्व से पहले कर्तृत्व अपेक्षित है। कतृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही पुरुष में हैं। पुरुष ही कर्ता है और पुरुष ही भोक्ता है । तुम्हारी भुजाओं में बल है, तुम पुरुषार्थ से आनन्द से उपभोग करो। भगवान आदिनाथ के कर्म युग का यह उद्घोष अब भी वैदिक वाड्.मय में प्रति ध्वनित होता दिखाई पड़ता है अयं मे हस्तो भगवान् अयं में भगवत्तर : । कृतं में दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः ॥" मेरा हाथ ही भगवान् है, भगवान् से भी बढ़कर है। मेरे दाएँ हाथ में कर्तृत्व है. पुरुषार्थ है ; तो बाएँ में विजय है, सफलता है। ___ पुरुषार्थ जागरण की उस वेला में भगवान ऋषभदेव ने युग को नया मोड़ दिया। मानव-जाति को, जो धीरे-धीरे -अस्त हो रही थी, अकर्मण्यता के फंदे में फँसकर तड़पने लगी थी, उसे प्रतिपादन का मंत्र दिया, श्रम स्वतन्त्रता का मार्ग दिखाया। फलतः मानव समाज में फिर से उल्लास एवं आनन्द बरसने लग गया । सुख-चैन की मुरली बजने लग गई। पवों एवं व्रतों का श्रीगणेशः ___मनुष्य के जीवन में जब-जब ऐसी सुख की घड़ियाँ आती हैं, आनन्द की स्रोतस्विनी बहने लग जाती है, तो वह नाचने लगता है। सबके साथ बैठ कर आनन्द और उत्सव मनाता है, और बस वे ही घड़ियाँ, वे ही तिथियाँ जीवन में पर्व एवं व्रत का रूप ले लेती हैं, इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ बन जाती हैं। इस प्रकार यह नये युग का नया संदेश जन-जीवन में नयी चेतना फूंक कर उल्लास का त्योहार बन गया। वही परम्परा आज भी हमारे जीवन में आनन्द-उल्लास की घड़ियों को त्योहार के रूप में प्रकट करके सबको सम्यक आनन्द का अवसर देती हैं। भगवान् ऋषभदेव के द्वारा कर्म-भूमि युग की स्थापना के बाद मनुष्य पुरुषार्थ के युग में आया और उसने अपने उत्तरदायित्वों को समझा। परिणाम यह हुआ कि वह सुख-समृद्धि और उल्लास के झूले पर झूलने लगा, और जब सुख-समृद्धि एवं उल्लास आया, तो फिर पों में से पर्व एवं व्रतों में से व्रत निकलने लगे। हर घर, हर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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