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________________ सत्य दर्शन/१८७ आत्मा मोक्ष में नहीं गई और कर्म तथा वासना के बंधन को नहीं तोड़ सकी। उनकी दृष्टिं केवल अपने तक ही सीमित थी। शरीर के अन्दर में, शरीर से परे क्या है, मालूमा होता है, इस सम्बन्ध में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं, और यदि किसी ने सोचा भी तो वह आगे कदम नहीं बढ़ा सका । जब कभी इस भूमिका का अध्ययन करता हूँ, तो मन में ऐसा भाव आता है, कि मैं उस जीवन से बचा रहूँ, जिस जीवन में ज्ञान का कोई प्रकाश न हो, सत्यता का कोई मार्ग न हो, भला उस जीवन में मनुष्य भटकने के सिवा और क्या कर सकता है ? इस जीवन में यदि पतन नहीं है, तो उत्थान भी नहीं है। ऐसी निर्माल्य दशा में, त्रिशंकु जैसे जीवन का कोई भी महत्त्व नहीं है। कुछ ऐसी ही क्रांति और प्रगति-विहीन सामान्य दशा में वह अकर्म युग चला आ रहा था, उसे जैन भाषा में पौराणिक युग कहते हैं। वह एक यौगन्त्रिक युग था, जिसका अन्त भगवान् ऋषभदेव ने किया था। ऋषभयुग में ही मनुष्य जाति ने भोगभूमि से कर्म भूमि में प्रवेश किया था। नवयुग का नया संदेश: धीरे-धीरे कल्पवृक्षों का युग समाप्त हुआ। इधर प्राकृतिक उत्पादन क्षीण पड़ने लगे, उधर उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ने लगी। ऐसी परिस्थिति में प्रायः विग्रह, वैर और विरोध पैदा हो ही जाते हैं । जब कभी उत्पादन कम होता है और उपभोक्ताओं की संख्या अधिक होती है, तब परस्पर संघर्षों का होना अवश्यम्भावी है। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक तौर पर.उस युग में भी यही हुआ कि पारस्परिक प्रेम एवं स्नेह टूटकर घृणा, द्वेष, कलह और द्वन्द्व बढ़ने लगे, संघर्ष की चिनगारियाँ छिटकने लग गईं। समाज में सब ओर कलह, घृणा द्वन्द्व का सर्जन होने लगा। मनुष्यों में असंतोष एवं संघर्ष बढ़ने लगा था। मानव जाति की उन संकटमयी घड़ियों में, संक्रमण शील परिस्थितियों में भगवान् ऋषभदेव ने मानवीय भावना का उद्बोधन किया उन्होंने मनुष्य जाति को परिबोध दिया, कि अब प्रकृति के भरोसे रहने से काम नहीं चलने का है। तुम्हारे हाथों का प्रयोग सिर्फ खाने के लिए ही नहीं, प्रत्युत कमाने, उपार्जन करने के लिए भी होना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा, कि युग बदल गया है, वह अकर्म युग का मानव अब कर्म युग (पुरुषार्थ के युग) में प्रविष्ट हो रहा है। इतने दिन पुरुष सिर्फ भोक्ता बना हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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