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________________ सत्य दर्शन / १८३ करना होगा। दीक्षा में छोड़ने के मूल मर्म को समझना होगा। परिवार तथा समाज की पूर्व प्रतिबद्धताओं में से बाहर निकल आने का अर्थ, परिवार तथा समाज से घृणा नहीं है, खिन्नता नहीं है। अपितु यह तो विराट की खोज के लिए क्षुद्र प्रतिबद्धताओं को लांघ कर एक अखण्ड विराट चैतन्य-धारा के साथ एकाकार होना है। व्यष्टि से समष्टिः यह अभूमा से भूमा की यात्रा है, व्यष्टि से समष्टि में लीन होने की एक आन्तरिक प्रक्रिया है, जहाँ पहुँचने पर छोड़ा और न छोड़ा सब एक हो जाते हैं। सागर में जैसे सब जल धाराएँ समाविष्ट हो जाती हैं, वैसे ही दीक्षित कीं विराट चेतना में अपने-पराये सब एक हो जाते हैं। अलग से कोई भी बच नहीं रहता है। परिवार तथा समाज को छोड़ देने की केवल एक चलती भाषा बच' रहती है, अन्यथा प्राणिमात्र के प्रतिभावात्मक एकता में किसी को कहीं छोड़ देने जैसा क्या रहता है ? जहाँ सब कुछ अपना ही हो गया, वहाँ छोड़ना ही व्यर्थ हो जाता है । दीक्षार्थी अपने अन्दर में शुद्धत्व के लिए गति करता है, और बाहर में समाज के शुभत्व के लिए यत्नशील होता है। अतः हमें किसी को साधु इसलिए नहीं बनाना है, कि संसार असार है, स्वार्थी है, झूठा है। अपितु इसलिए बनाना है, कि शरीर, इन्द्रिय और मन आदि की अनेकानेक सूक्ष्म एवं साथ ही सघन परतों के नीचे दबा अनन्त चेतना का जो अस्तित्व है, उसकी उपलब्धि एवं अभिव्यक्ति ही साधक जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य है, उसकी खोज दीक्षार्थी प्रशान्त मन-मस्तिष्क से कर सके। यह वह स्थिति है, जहाँ परिवार या समाज के छोड़ने या छूट जाने का अच्छा बुरा कोई विकल्प ही मन में नहीं रहता है। इस अर्थ में छोड़ने और छूटने का पूर्ण विस्मरण हो जाता है। वह त्याग का भी त्याग है, 'मुच्' धातु के कर्त्तव्य का विसर्जन है, जो आज के साधु जीवन में ठीक तरह हो नहीं पा रहा है। अस्तु, दीक्षा सहजानन्द की प्राप्ति के द्वारा अन्तर्मन की रिक्तता को समाप्त कर देती है, परम सत्य के निर्मल एवं शाश्वत आलोक के लिए द्वार खोल देती है। परम चेतना की खोज के लिए साधु-जीवन एक अवसर है। यह अन्तिम साध्य नहीं, बीच का एक साधन है। इसके द्वारा साधक अपने परम चैतन्य स्वरूप स्वतत्त्व के निकट पहुँच जाता है, उसे पा सकता है, बस यही अंतर्जगत् की दृष्टि से दीक्षा के सही मूल्य की उपलब्धि है, दीक्षा की सही उपयोगिता है। दीक्षा की सार्थकता इसी में है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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