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________________ १८२/ सत्य दर्शन अंधकार । अंधकार में कब तक ठोकरें खाते रहोगे ? परिवार से, समाज से, सब से सम्बन्ध तोड़ो, वैराग्य ग्रहण करो, दीक्षा लो। यह तोता रटंत भाषा है, जिसे कुछ भावुक मन सही समझ लेते हैं, और आँख मूंद कर चल पड़ते हैं, तथाकथित गुरुजनों के शब्द-पथ पर सब कुछ छोड़-छाड़ कर साधु बन जाते हैं. दीक्षित हो जाते हैं। परन्तु वस्तुतः होता क्या है, दीक्षित होने के बाद ! पंथ-परंपराओं और संप्रदायों के नए परिवार खड़े हो जाते हैं, राग-द्वेष के नये बन्धन आ धमकते हैं। एक खूटे से बंधा पशु दूसरे मजबूत खूटे से बाँध दिया जाता है । क्या राहत मिलती है पशु को झूटों के बदलने से। दीक्षार्थी की भी प्रायः यही स्थिति हो जाती है। कुछ दूर चलकर बहुत शीघ ही वह अनुभव करने लगता है, कि जिस समस्या के समाधान के लिये मैं यहाँ आया था, वही समस्या यहाँ पर भी है। वही स्वार्थ है, वही दम्भ है, वही अहंकार है, वही घृणा है और है वही द्वेष । कुछ भी तो अन्तर नहीं है, कहाँ आन फँसा मैं यहाँ । यह सब इसलिए होता है, कि भद्र-साधकों को साधना की सही दृष्टि नहीं दी जाती । परिणामस्वरूप अनेक दीक्षितों से कभी-कभी सुनने को मिलता है, कि क्या करें ? साधना हो तो रही है, पर वह सब ऊपर-ऊपर से हो रही है। भीतर में कोई परिवर्तन नहीं, कोई नयी उपलब्धि नहीं । इस प्रकार एक दिन का वह प्रसन्न चित्त वैरागी अपने में एक गहरी रिक्तता का अनुभव करने लगता है । और कभी-कभी तो इसका अन्तर्मन ग्लानि से इतना भर उठता है, कि विक्षिप्तता की भूमिका पर पहुँच जाता है, और कुछ का कुछ करने पर उतारू हो जाता है। आज की साधु संस्था के समन यह एक ज्वलंत समस्या है, जो अपना स्पष्ट रचनात्मक समाधान चाहती है। हमारे उपदेश की भाषा और साधना की पद्धति अधिक स्वस्थ और मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए, ताकि दीक्षित व्यक्ति को अपने में रिक्तता का अनुभव न करना पड़े, उसे अपनी स्वीकृत साधना से यथोचित संतोष हो सके। अगर ऐसा कुछ हो सका, तो निश्चित ही उसकी सम्यक प्रतिक्रिया व्यक्ति पर तो होगी ही, समाज पर भी अवश्य होगी। समाज में दीप्तिमान् तेजस्वी एवं स्वपरहिताय सक्रिय साधु-संगठन निर्मित हो, इसके लिए साधु-संस्था को वैज्ञानिक प्रयोगशाला की तरह प्रत्यक्षतः उपलब्धि का केन्द्र होना जरूरी है, जहाँ जीवन की गहराइयों को सूक्ष्मता से समझा जा सके, अन्तर की सुप्त ऊर्जा के विस्फोट के लिए उचित निर्णायक प्रयास हो सके। इसके लिये चेतना पर पड़े अनन्त दूषित आवरणों को, परतों को, विकल्पों को एवं मिथ्या धारणाओं को दूर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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