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________________ १८०/ सत्य दर्शन साधक स्वयं अनुभूति की गहराई में नहीं पैठता है, तो। आज तक इतिहास में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है, कि किसी ने अपनी आँख खोले बिना दूसरे की आँख से वस्तु दर्शन कर लिया हो। हर साधक की खोज अपनी और अपनी ही होती है। दूसरे की नकल, नकल तो हो सकती है, पर वह कभी असल नहीं हो सकती। सत्य एक है, परन्तु उसकी खोज की प्रक्रियाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं । इसीलिए एक वैदिक ऋषि ने कहा था, कभी चिर अतीत में "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।' महावीर और बुद्ध एक युग के हैं, पर दोनों की शोध-प्रक्रिया भिन्न है। और तो क्या, एक ही परम्परा के पार्श्व और महावीर की चर्या-पद्धति भी एक-दूसरे से पृथक है। अनन्त आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पक्षियों की भाँति परम-तत्त्व की खोज में निकले यात्रियों के मार्ग भी भिन्न-भिन्न रहे हैं। इनके मार्गों की कहीं कोई एक धारा निश्चित नहीं हो सकी है। जितने यात्री उतने पथ । यही कारण है, कि परमाणु की खोज की अपेक्षा परमात्मा की खोज अधिक जटिल है। इसकी सदा सर्वदा के लिए कोई एक नियत परम्परा नहीं बन सकती। "विधना के मारग हैं तेते, सरग नखत तन रो औं जेते ।" दीक्षा का अर्थ बोध विश्व इतिहास पर नजर डालने से पता लगता है, कि परमात्मतत्त्व की खोज की कोई.एक परम्परा नहीं है, फिर भी परम्पराओं में एकत्व परिलक्षित तो होता है। अनेक में एक का दर्शन यहाँ पर भी प्रतिभासित होता है, और वह है दीक्षा का एकत्व । हर धर्म और हर दर्शन की.परम्पराओं में दीक्षा है। साधना का मूल स्रोत दीक्षा से ही प्रवाहित होता है । दीक्षा का अर्थ केवल कुछ बंधी बंधायी व्रतावली को अपना लेना नहीं है, अमुक सम्प्रदाय विशेष के परंपरागत किन्हीं क्रियाओं एवं वेशभूषाओं में अपने को आबद्ध कर लेना भर नहीं है। ठीक है, यह भी आरम्भ में होता है। इसकी भी एक अपेक्षा है। हर संस्था का अपना कोई विशिष्ट गण-वेश होता है। परन्तु महावीर कहते हैं, यह सब तो बाहर की बातें हैं, वातावरण बनाए रखने के साधन हैं । “लोगे लिंगप्प ओयणं।" अतः दीक्षा का मूल उद्देश्य यह नहीं, कुछ और है, और वह है, परमतत्त्व की खोज । अर्थात् अपने में अपने द्वारा अपनी खोज । अस्तु, मैं दीक्षा का अर्थ आज की सांप्रदायिक भाषा में किसी संप्रदाय विशेष का साधु या साधक हो जाना नहीं करता हूँ। मैं आध्यात्मिक भाव-भाषा में अर्थ करता हूँ, बाहर से अन्दर में पैठना, अपने गुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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