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________________ सत्य दर्शन / १७९ की खोज में एक वैज्ञानिक की साधना दूसरे की साधना का आधार बन सकती है। पहले की खोज दूसरे के काम आ सकती है। पहले की साधना का उपयोग करके आगे आने वाला दूसरा अपनी साधना को आगे बढ़ा सकता है। इतना ही नहीं, वर्तमान के अपने सहयोगियों का साथ भी बाहर के विज्ञान की खोज में काफी सहायक सिद्ध हो सकता है। परन्तु जहाँ तक अन्तर जगत् की खोज का प्रश्न है, उसमें ऐसा कुछ नहीं है। हर साधक को शून्य से ही अपनी साधना का प्रारम्भ करना होता है। यहाँ दूसरे व्यक्ति की साधना की खोज कोई खास काम नहीं आती। यह ठीक है कि अन्तर्जगत् की साधना के क्षेत्र में भी गुरु होते हैं, वे अपना अनुभव आने वाले शिष्यों को बताते हैं । और उनका यह बताना, भविष्य के लिए शास्त्र हो जाता है। गुरु और शास्त्र दोनों ही कुछ उपयोगिता तो रखते हैं ! परन्तु यह उपयोगिता एक सीमा तक ही है। लक्ष्य-प्राप्ति में अन्तिम निर्णायक नहीं होती है, यह उपयोगिता । बाहर के आचार, विचार और व्यवहार में कुछ दूर तक गुरु और शास्त्र का उपयोग हो सकता है, मार्ग दर्शन मिल सकता है, कुछ जानकारी भी हासिल की जा सकती है, किन्तु अपने अन्दर में पैठना तो अपने को ही होता है, दूसरा कौन किसके अन्दर में पैठ सकता है। अन्तर जगत् में प्रवेश करते ही गुरु और गुरु के शब्द बाहर ही रह जाते हैं, क्योंकि वे बाहर के हैं न? जो बाहर का है, वह अन्दर में कैसे पैठ सकता है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा था-"अपदस्स पदं नत्थि"-अन्तर का आत्म तत्त्व अपद है, वह किसी शब्द द्वारा ग्राह्य एवं ज्ञातव्य नहीं है। वह किसी के दिये तर्क से भी दृष्ट नहीं होता है। महावीर ने कहा है, इस सम्बन्ध में भी, “तक्का तत्थ न विज्जई।" वहाँ तर्क की भी पहुँच नहीं है। वहाँ पहुँच है, एक मात्र अनुभूति की। अनुभूति अपनी होती है। दूसरे की अनुभूति अपने लिए अनुभूति नहीं, केवल जड़ शब्द होते हैं । और ये शब्द परोक्ष रूप में एक धुंधलाता-सा सत्य अवश्य उभारते हैं मानव-मन में । किन्तु यह सत्य स्पष्ट तथा प्रत्यक्ष कभी नहीं होता। किसी के कहने से भी मिश्री के मिठास का ज्ञान हो सकता है और मिश्री को जिह्वा पर चखने से भी उसके मिठास का अनुभव होता है। पर आप जानते हैं, दोनों में कितना अन्तर होता है। आकाश-पाताल से भी ज्यादा अन्तर है, दोनों परिबोधों में । यह अन्तर है शब्द-बोध और अनुभूति-बोध में । अन्तर्जगत में परमात्म-तत्व का बोध अनुभूति-बोध के क्षेत्र में आता है, शब्द-बोध के क्षेत्र में नहीं। अतः यहाँ गुरु और शास्त्र से बहुत कुछ सीख लेने के बाद भी शून्य ही रहता है, यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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