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________________ १५२/ सत्य दर्शन मुनि-दीक्षा ले ली और बात पूरी हो गई। सिर मुंडाया और सिद्धि प्राप्त हो गई। दीक्षा ले लेने के पश्चात् विकास के लिए न कोई अवकाश है, न कोई आवश्यकता ही है 'अप्पाणं वोसिरामि' कहते ही साधुता आ जाती है। यह एक बड़ा खतरनाक भ्रम है। दीक्षा लेने का अर्थ-प्रतिज्ञा लेना है। एक आदमी सेना में सैनिक के रूप में भर्ती होता है। तो कहने को तो भर्ती हो जाता है, पर वह सच्चा सैनिकं बना है या नहीं, इस बात की परीक्षा तो समरांगण में ही होगी। अगर वह लड़ाका सैनिक पुर्जे-पुर्जे कट मरेगा, किन्तु मोर्चे को नहीं छोड़ेगा, तब उसकी परीक्षा पूर्ण हो जाएगी। वह सच्चा सैनिक कहलाएगा। इसी प्रकार किसी ने श्रावक या साधु के व्रत अंगीकार कर लिए, तो इससे क्या हो गया? यह तो प्रतिज्ञा-मात्र होती है। इसके बाद जब विचारों से संघर्ष करते हुए आगे चलते हैं, तब मालूम होता है कि हम हार रहे हैं या जीत रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं या पीछे हट रहे हैं, हम मुँह की खा रहे हैं या अपना झंड़ा गाढ़ रहे हैं ? जब हम इस प्रकार विचार करते हैं, तो पता चलता है कि जीवन का आदर्श क्या है ? उसी आदर्श की प्राप्ति के लिए निरन्तर आगे बढ़ते जाने में, सच्ची साधुता है। यहाँ साधुता की परीक्षा होती है। जो इस परीक्षा में सफल होता है, वही सच्चा साधु है। भ्रम तथा सत्य : सत्य की प्राप्ति के लिए वहम-मात्र का त्याग कर देना आवश्यक है। और वहमों का त्याग करने के लिए उनके कारणों को जाँचने और परखने की जरूरत है। देखना होगा कि आखिर, वहम जीवन की किस दुर्बलता में से जन्म लेते हैं ? विचार करने से पता चलेगा कि वहम के प्रधान कारण भय और लालच हैं। साधना के सम्बन्ध में अथवा जीवन-व्यवहार के सम्बन्ध में जो भी वहम हैं, उनका मूल स्रोत यही है। जब मनुष्य भय से घिर जाता है, तो कोई न कोई कल्पना कर लेता है और उस कल्पना के लोक में दूर तक चला जाता है और सत्य से इन्कार कर देता है। इसी प्रकार जब यश और प्रतिष्ठा का लोभ होता है और वह लोभ इंसान की जिन्दगी को चारों ओर से घेरे रहता है, तो ऐसा मालूम होता है कि उसका जीवन चल रहा है, मगर चलता है वह तेली के बैल की तरह । तेली का बैले सवेरे से शाम तक चलता है और उसकी हड्डी-हड्डी दुखती रहती है। वह समझता है. जैसे दस-बीस कोस चला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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