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सत्य दशन / १४७
थी और आज के युग की तपस्या कुछ और रूप रखती हो। तपस्या तो तपस्या है और वह हर समय और हस जगह सुन्दर होनी चाहिए। यह नहीं हो सकता है कि सौ वर्ष पहले मिश्री मीठी लगती थी और आज कड़वी लगती हो या आज मीठी है और सौ वर्ष बाद कड़वी लगने लगेगी। मिश्री तो अपने-आप में मिश्री है। उसकी प्रकृति नहीं पलट गई है। यदि मनुष्य का स्वास्थ्य ठीक है, तो मिश्री मीठी ही लगने वाली है। वह अब भी मीठी है और आगे भी मीठी ही रहेगी।'
इसी प्रकार हमारी साधनाओं का स्वभाव समय के पलट जाने पर भी पलट नहीं सकता। युग बदलते रहते हैं, फिर भी प्रत्येक वस्तु का स्वभाव स्थिर ही रहता है। ऐसा है, तभी तो शाश्वत धर्म की कल्पना है। अन्यथा विभिन्न युगों के तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट साधनाओं में एकरूपता की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। फिर तो जितने तीर्थंकर, उतनी ही तरह की साधनाएँ भी होतीं । मगर ऐसा हुआ नहीं, होता भी नहीं । इसी कारण हम कहते हैं कि हमारी आध्यात्मिक साधनाओं की रूप-रेखा महावीर स्वामी ने नहीं बनाई, वे तो सनातन हैं और जब-जब भी कोई तीर्थंकर होंगे, इन्हीं साधनाओं के रूप में वे मानव-जाति का पथ-प्रदर्शन करेंगे।
• वस्तु का स्वभाव युग के साथ बदलता होता, तो हजारों वर्षों पहले लिखे हुए आयुर्वेद आदि के ग्रन्थ इस युग में हमारे क्या काम आ सकते थे ? समस्त दर्शन-शास्त्र भी आज हमारे लिए अनुपयोगी होते । दुनियाँ ही उलट-पलट हो गई होती।
सत्य, युग के आश्रित नहीं है। देश और काल उसे प्रभावित नहीं कर सकते। वह शाश्वत धर्म है। अक्षय है, अनन्त है और अपरिसीम है। दिन की जगह रात और रात की जगह दिन हो जाता है, मगर यह सत्य का ही प्रभाव है। सत्य सदैव सत्य है। अतएव जो बात आज सत्य है, वह कल भी सत्य थी और आगे भी सत्य ही रहेगी।
अभिप्राय यह है कि तपस्या में अगर मन, वचन और काया की एकरूपता है-सचाई है, तो वह रंग लाएगी ही। प्राचीनकाल में वह रंग लाती थी, तो कोई कारण नहीं कि आज उसका स्वभाव या प्रभाव बदल जाए। और यदि कहीं पर विकार पैदा हो गया है, गड़बड़ हो गई है और मन, वचन, काया की एकरूपता नहीं सध रही है, तो इसका अर्थ यह है कि वह तपस्या अपने-आप में सत्य नहीं है और जब तपस्या सत्य नहीं रही है, तो उसकी मिठास प्राप्त नहीं होगी।
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