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________________ सत्य दर्शन / १२९ रहा था और सोच रहा था कि यहाँ ठहर कर भी बुड्ढा ऊपर क्यों नहीं आ रहा है ? आखिर उसने पूछा- 'कैसे खड़े हो ?' उत्तर में उसने चिट्ठी निकाल कर दे दी। सेठ ने चिट्ठी पढ़ कर प्रेम से बिठलाया और अस्पताल में व्यवस्था करा देने का आश्वासन दिया। दूसरे दिन मोटर में बिठलाकर वह उसे अस्पताल में ले गया और स्थान रिक्त होने पर उसे दाखिल करा दिया और उसकी सब आवश्यक व्यवस्था करा दी । इलाज के बाद जब वह स्वस्थ हो गया, तब उसने एक पत्र लिखा। उस पत्र का क्या पूछना है । वह हृदय परिवर्तन की बात थी। उसके पत्र का आशय यह था कि- "जब आप मेरे गाँव में आए थे, तो मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था । किन्तु आगरे में मेरे साथ जो व्यवहार किया गया, उसका मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा । किन्तु पटना पहुँचने पर युवक सेठ ने, जिसे मेरे साथ बात करने में भी नफरत आ सकती थी, सौहार्दपूर्ण व्यवहार किया, उसने तो मेरे मन को पूरी तरह मोह लिया है। सच पूछिए, तो सेठ ने क्या, जैनधर्म ने मेरे मन को मुग्ध कर लिया है। मैं वहाँ जैन नहीं बना, यहाँ बन गया हूँ।' जिन्होंने वह पत्र पढ़ा, गद्गद हो गए। इतनी लम्बी कहानी सुनाने का मेरा अभिप्राय क्या है ? मैं आपको बतलाना चाहता हूँ कि जैन बनाने की कला क्या है ? बड़े-बड़े मंत्रों से, व्याख्यान फटकार देने से जैन नहीं बन सकते । यद्यपि यह भी एक मार्ग है सही, मगर वह पूरा और प्रभावशाली मार्ग नहीं है। सरल और अचूक मार्ग यही है कि समाज के किसी भी भाई को दुखी देखो, बिछुड़ा हुआ देखो, तो प्रेम का सन्देश लेकर पहुँच जाओ, प्रेम की आँखें लेकर पहुँचो । धन तुमको ऊँचे महलों में ले गया है और तुम अपने गरीब भाई के लिए नीचे उतर सकते हो, तो तुम्हारी दया-धर्म की बातें उसके हृदय में सीधी प्रवेश कर जाएँगी - हजारों व्याख्यान प्रवेश नहीं करेंगे । इस घटना का प्रभाव मेरे ऊपर अभी तक पड़ता है। मैं विचार करता हूँ कि जो समाज इतना बड़ा है, किन्तु जो अपने बच्चों, बूढ़ो और असहाय बहिनों की समय-समय पर सार-संभाल नहीं कर पाता और केवल आने वाले सन्तों के आगे ही घरों की लम्बी-लम्बी गिनती करता है, वह मूल में ही असत्य का सेवन करता है। समाज के जिस अंग को तुम अपना कहते हो, उसकी जवाबदारी को पूरा नहीं कर सकते, तो असत्य का आचरण कर रहे हो। यह भी असत्य का ही एक रूप है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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