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________________ सत्य दर्शन / १०९ पदार्थ खिलाए जाएँ, तो वे पदार्थ उसके जीवन को बनाने के बदले गलाएँगे, समर्थ नहीं बनाएँगे। अशक्त आदमी कल मरता होगा, तो पौष्टिक पदार्थ खाकर आज ही मर जाएगा। इसी प्रकार जो साधु, गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को भी नहीं निभा सकता है और जीवन के छोटे-छोटे व्यवहारों में भी ठीक नहीं रह रहा है, और खाने-पीने की चीजों में भी प्रामाणिकता नहीं बरत रहा है और चलता है तो दूसरे के जीवन में अंधकार की चादर डाल रहा है, तो उसकी लम्बी साधनाएँ और तपश्चर्याएँ उसके जीवन का महत्त्व नहीं बढ़ाएँगी। जो ज्यादा ढोंग करते हैं, बनावट करते हैं और फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं और जिनमें आप जरूरत से ज्यादा विवेक देखते हैं, उनके सम्बन्ध में हमारे यहाँ कहा जाता है कि उनके जीवन के अन्दर काँटे हैं, सरलता नहीं है। जीवन में जो सहज और सरल व्यवहार होना चाहिए. वह नहीं है । एक आचार्य ने कहा है असती भवति सलज्जा, क्षारं नीरं च शीतलं भवति । दम्भी भवति विवेकी, प्रिय-वक्ता भवति धूर्त-जन : ॥ बड़ी कठोर बात है। और ऐसी बात है कि भले ही आपके दिल में न चुभे, किन्तु हमारे दिल में तो चुभ जाती है । बहिनें अपने जीवन में पर्दा लेकर चलती हैं । उनको अपने परिवार में या बाहर अपने शील-सौजन्य को बरकरार रखना है और समाज की कल्पित सीमाओं से बाहर नहीं जाना है। मगर जब जीवन के भीतर का लज्जा का पर्दा हट जाता है, तब भी बाहर का पर्दा तो चलता ही रहता है, बल्कि दूसरों की अपेक्षा कुछ और ज्यादा चलने लगता है। ऐसी बहिनें अधिक बनावा करती हैं और क्या आचार्य जो सीता की बराबरी का भी दावा न करें? उनके जीवन की दूसरों के जीवन के साथ तुलना करते समय हमें ध्यान रखना है कि खारा पानी, मीठे पानी की अपेक्षा अधिक शीतल होता है। मगर उसकी शीतलता की क्या सार्थकता है ? वह किसी की प्यास बुझाने और दूसरों को सन्तोष देने के काम नहीं आ सकता, तो उसकी शीतलता का क्या बनाया जाए ? इसी प्रकार जो मनुष्य ज्यादा दंभी होता है, वह बहुत ज्यादा विवेक दिखलाता है। कभी-कभी इस दंभ का रूप इतना विचित्र होता है कि कुछ पुछिए मत । बहुत पहले एक मुनि के सम्बन्ध में मालूम हुआ था। उन्हें कुछ लिखना था और कागज तथा पैंसिल सामने पड़े थे। दिन का समय था और सूर्य का प्रकाश चमक रहा था। फिर भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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