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सत्य दर्शन / १०५
पर साँस छोड़ रहा है और ले रहा है। पर उस हृदय का मूल्य अपने-आप में कुछ नहीं है। उसमें अगर महान् करुणा की लहर नहीं पैदा होती, तो उस माँस के टुकड़े की कोई कीमत नहीं है।
कल के अखबार में पढ़ा-आसाम में जब उपद्रव हुआ, प्रकृति के भर्यकर प्रकोप के कारण भूकम्प आ गया और सृष्टि के टुकड़े-टुकड़े हो गए, हजारों-लाखों लोग मौत के मुँह में पड़ गए और सर्वनाश का दिल दहलाने वाला दृश्य उपस्थित हो गया, तब भी सैंकड़ों लोग छीना-झपटी कर रहे थे। यह क्या चीज है ?
दिल्ली के सदर बाजार में आग लग रही है, संहार हो रहा है, देश की सम्पत्ति भस्म हो रही है और महलों के सोने वाले सड़कों पर आश्रय ले रहे हैं और दूसरी तरफ लोग आग बुझाने की आड़ में दुकानों के ताले तोड़-तोड़ कर माल उठाकर ले जा रहे हैं। स्वतन्त्र देश के नागरिकों की यह दशा। इतना अधःपतन। जो देश लाखों वर्षों से सोए जीवन को जगाने की प्रेरणा देता रहा है, जहाँ बुद्ध और महावीर आए, राम-कृष्ण आए और संसार के महान् से महान् पुरुष आए। जिस देश को उनकी वाणी श्रवण करने का सौभाग्य मिला, उसी देश के नागरिकों की यह शोचनीय दशा । कहाँ तो महापुरुषों का यह सन्देश कि-'सारा संसार तू ही है और तेरा अलग अस्तित्व नहीं है'
और कहाँ यह प्रवृत्ति। समस्त महापुरुषों ने एक स्वर से लोगों को इतनी बड़ी भावना दी, और संसार को सुख-शान्ति पहुँचाने की बात कही। फिर भी लोग दूसरों के मांस के टुकड़े काट-काट कर भागे जा रहे हैं ।
तो, जब हमारे जीवन में समग्र विश्व के प्रति दया और करुणा का भाव जागृत होगा, तभी प्रकृति-भद्रता उत्पन्न हो सकेगी। तभी हमारा जीवन भगवत्स्वरूप होगा। __ इस प्रकार सारे समाज के प्रति कर्त्तव्य की बुद्धि उत्पन्न हो जाना, विश्व-चेतना का विकास हो जाना है और उसी को जैन धर्म ने भागवत रूप दिया है । यही मानव-धर्म है।
तो धर्म का मूल इन्सानियत है, मानवता है और मानव की मानवता ज्यों-ज्यों विराट रूप ग्रहण करती जाती है, त्यों-त्यों इस का धर्म भी विराट बनता चला जाता है। इस विराटता में जैन, वैदिक, बौद्ध, मुस्लिम, सिख और ईसाई आदि का कोई भेद नहीं रहता, सब एकाकार हो जाते हैं । यही सत्य का स्वरूप है, प्राण है और इस विराट चेतना में ही सत्य की उपलब्धि होती है।
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