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________________ १०४/ सत्य दर्शन और टूटकर अन्यत्र जाएगा, तब भी महकता रहेगा। महक ही उसका जीवन है, प्राण सहज-भाव से अपने कर्तव्य को निभाने वाला मनुष्य सिर्फ अपने-आपको देखता है। उसकी दृष्टि दूसरों की ओर नहीं जाती। कौन व्यक्ति मेरे सामने है, अथवा किस समाज के भीतर मैं हूँ, यह देखकर वह काम नहीं करता। सूने पहाड़ में जब वनगुलाब खिलता है, महकता है, क्या उसकी खिलावट को देखने वाला और महक को सूंघने वाला आसपास में कोई होता है ? परन्तु गुलाब को परवाह नहीं कि कोई उसे दाद देने वाला है या नहीं, भ्रमर है या नहीं । गुलाब जब विकास की चरम सीमा पर पहुँचता है, तो अपने-आप खिल उठता है.। उससे कोई पूछे-तुम्हारा उपयोग करने वाला यहाँ कोई नहीं है। फिर क्यों वृथा खिल रहे हो? क्यों अपनी महक लुटा रहे हो? गुलाब जबाध देणा-कोई है या नहीं, इसकी मुझको चिन्ता नहीं । मेरे भीतर उल्लास आ गया है, विकार, आ गया है और मैंने महकना शुरू कर दिया है। यह मेरे बस की बात नहीं है। इसके बिना मेरे जीवन की और कोई गति ही नहीं है। यही तो मेरा जीवन है। बरा, यही भाव मनुष्य में जागृत होना चाहिए। वह सहज भाव से अपना कर्त्तव्य अदा करे और इसी में अपने जीवन की सार्थकता समझे । इसके विपरीत, जब मनुष्य स्वतः समुद्रभूत उल्लास के भाव से अनेक कर्त्तव्य और दायित्व को नहीं निभाता, तो चारों ओर से उसे दबाया और कुचला जाता है। इस प्रकार एक तरह की गंदगी और बदबू फैलती है। आज दुर्भाग्य से समाज और देश में सर्वत्र गन्दगी और बदबू ही नजर आ रही है और इसीलिए जीवन अत्यन्त पामर बना हुआ है। __ भारतीय दर्शम, जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण सन्देश लेकर आया है कि तू अन्दर से क्या है ? तुझे अन्तरतर में विराजमान महाप्रभु के प्रति सच्चा होना चाहिए। वहाँ सच्चा है, तो संसार के प्रति भी सच्चा है और वहाँ सच्चा नहीं, तो संसार के प्रति भी सच्चा नहीं है। अन्तःप्रेरणा और स्फूर्ति से, बिना दबाव के भय से जब अपना कर्तव्य निभाया जाएगा, तो जीवन एकरूप होकर कल्याण बन जाएगा। दूसरी बात है मनुष्य के हृदय में दया और करुणा की लहर पैदा होना। हमारे भीतर, हृदय के रूप में, माँस का एक टुकड़ा है। निस्सन्देह, वह माँस का टुकड़ा ही है और माँस के पिण्ड के रूप में ही हरकत कर रहा है। हमें जिन्दा रखने के लिए साँस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003425
Book TitleSatya Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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