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________________ ७४ : पीयूष घट प्रेम था। कोई भी सुन्दर वस्तु देखते, तो एक-दूसरे को दियालिया करते थे-उपहार के रूप में। एक बार परदेशी ने अपने बुद्धिमान तथा विश्वस्त मन्त्री चित्त सारथि को श्रावस्ती भेजा-कुछ उपहार देने को तथा वहाँ की राजनीति का अध्ययन करने को। श्रावस्ती में पहुंच कर चिर सारथि ने जितशत्र राजा को उपहार समर्पित किया और वहाँ रहकर राजनीति का अध्ययन करने लगा। । उस समय वहाँ भगवान् पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के समर्थ आचार्य केशी श्रमण पधारे थे। चित्त ने भी उनकी कल्याणी वाणी का लाभ लिया। चित्त, केशी श्रमण के प्रवचन सुनकर उनमें डब गया। उसे रस आया ! उसे अनुभव हआमेरा खोया धन मुझे मिल गया। उसने बारह व्रत अंगीकार किए । लौटते समय चित्त ने केशी श्रमण से श्वेताम्बिका पधारने की प्रार्थना की। केशी श्रमण मौन रहे । चित्त ने दोबारा प्रार्थना की ! तिबारा फिर प्रार्थना की !! केशी श्रमण परदेशी की क्रूरता और अधर्मशीलता से भलीभाँति चिर-परिचित थे। उन्हें अपना भय नहीं था, वे स्वयं अभय थे। परन्तु अपने धर्म और संघ की वहाँ पर अवज्ञा न हो जाए, इसकी उसके मानस में गहरी चिन्ता थी। चित्त, चतुर था, वह मौन के रहस्य को समझता था। चित्त सारथि विनम्र, पर सतेज स्वर में बोला : “भते, आप किसी प्रकार का अन्यथा विचार न करें। श्वेताम्बिका अवश्य ही पधारें। वहां आपके पधारने पर बहुत बड़ा लाभ होगाधर्म की महती सेवा होगी ! प्रभावना होगी !" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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