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५६ : पीयूष घट
एक बार वह राजगृही जाने लगा, तो भगवान् से पूछा : "मैं राजगृह जा रहा हूँ, कोई सेवा हो तो कृपा कीजिए ।"
भगवान् ने नाग गाथापति को पत्नी सुलसा को धर्म-सन्देश कहलाया । अम्बड ने सोचा : "सुलसा अपने धर्म में कितनी दृढ़ है ? परीक्षा करके देखें !"
उसके अनेक रूप बनाए, भगवान् का रूप भी बनाया, परन्तु सुलसा ने उसे नमस्कार नहीं किया । सुलसा की श्रद्धा से वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ ।
अम्बड ने घोर तपस्या की थी, कठोर साधना की थी, व्रतों की सम्यक् आराधना की थी । इस कारण उसे वैक्रिय लब्धि और अवधि ज्ञान भी प्राप्त हो गया था । भगवान् महावीर के धर्म में अम्बड को अत्यन्त श्रद्धा थी । जैसी श्रद्धा अम्बड सन्यासी की थी, वैसी ही श्रद्धा उसके सात सौ शिष्यों की भी थी ।
एक बार अम्बड के सात सौ शिष्य एक साथ कंपिलपुर से गंगा के किनारे-किनारे पुरिमताल नगर जा रहे थे । भयंकर ग्रीष्म था, भयंकर आतप बढ़ रहा था, आकाश और धरती जल रहे थे । झुलसाने वाली तू चल रही थी । प्यास लगी, कंठ सूखने लगे। गंगा का निर्मल जल बह रहा था, परन्तु बिना किसी गृहस्थ की आज्ञा के वे पानी नहीं पी सकते थे । किसी के आने की प्रतिक्षा करते रहे, परन्तु कोई नहीं आया । शीतल जल तो वे लेते थे, पर आज्ञा बिना कैसे लें ? अस्तेय व्रत का वे इतनी कठोरता पूर्वक पालन करते थे ।
स्थिति विकट होती जा रही थी ! तृषा का वेग चरम सीमा सब के सब भूमि का शोधन करके गंगा लेट गए !!! ऊपर से सूर्य तपा रहा था ।
पर पहुँच रहा था !! वे की रेत में अनशन करके
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