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________________ ५४ : पीयूष घट "तृषा कितनी भंयकर पीड़ा है। क्यों न मैं लोकहित के लिए राजगृह के बाहर एक सुन्दर पुष्करिणी बना दूं, जिसका जल पान कर जन, शान्ति और सुख का अनुभव कर सकें।" अपने विचार को साकार रूप देने में संपन्न व्यक्ति को विलम्ब नहीं लगता । मणिकार नन्द ने एक विशाल एवं विस्तृत पूष्कारिणी तैयार करा ली, जिसके चारों ओर सघन वृक्षों वाले चार वन-खण्ड थे। पूर्व के वन-खण्ड में चित्र शाला, दक्षिण में पाक-शाला, पश्चिम में औषध-शाला और उत्तर में अलंकारशाला बनवादी। दूर-दूर के यात्री वहाँ आकर सुख पाते थे। चारों ओर नन्द का यश फैल गया। राजगह के घर-घर में नन्द की प्रशंसा के गीत गाए जाने लगे। अपनी प्रशंसा और यश को पचाना कोई सरल काम नहीं है। प्रशंसा वह भूख है, जिसकी पूर्ति जीवन भर नहीं हो सकती। मनुष्य इसमें अपनी राह भूल जाता है। कालान्तर में मणिकार नन्द सोलह महारोगों से पीड़ित हो गया। चिकित्सा कराने पर भी वह स्वस्थ नहीं हो सका। रोग दशा में भी उसका मन पुष्करिणो में अटका हुआ था । अपनी तीव्र आसक्ति के कारण ही वह मरकर स्व-निर्मित्त पुष्करिणी में मेंढक बन गया। पुष्करिणी में आने-जाने वाले लोगों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर वह गम्भीर विचार करता । उसे जाति स्मरण ज्ञान हो गया। अपनी तीव्र आसक्ति के कारण होने वाली दुर्दशा पर उसे पश्चाताप होने लगा। "एक बार मैं फिर राजगह में आया। परिवार सहित राजा श्रेणिक वन्दन को आया । मेंढक ने भी जल भरने को और स्नान Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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