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________________ माता की ममता जीत गई! साधुता का मार्ग सहज और सुखद नहीं है। वह फूलों का मार्ग नहीं, काँटों का मार्ग है । बलवान् आत्मा हो दृढ़ता के साथ इस मार्ग पर आगे बढ़ सकती है। एक बार तगरा नगरी में विहार करते-करते आचार्य अर्हन मित्र अपने शिष्य वर्ग के साथ पधारे। आचार्य की कल्याणी वाणी सुनकर वणिकदत्त को वैराग्य हो गया। प्रवजा लेने का संकल्प किया। भद्रा पत्नी और अरणक पुत्र ने भी संयम लेने की भावना व्यक्त की। तीनों प्रबजित हो गए। दत्त को अरणक पर अत्यन्त स्नेह था। वह स्वयं ही उसकी भिक्षा लाता और सेवा करता था । अति स्नेह भो अनर्थकर होता है । अरमक कर्मठ नहीं बन सका। दूसरे साधु मन में सब समझते हुए भी बाहर में कुछ कह नहीं सकते थे। सभ्यता भी एक अगला है, जिसमें बन्द होना ही पड़ता है। कालान्तर में वृद्ध पिता दत्तके देहावसान पर अरणक को बड़ी चिन्ता हुई ! दो-चार दिन तक सन्तों ने अरणक को भोजनपान लाकर दिया। बाद में स्वयं उसको ही लाना पड़ता। भीष्म ग्रीष्म पड़ रहा था । ऊपर से सूर्य तप रहा था, नाचे से धरती तप रही थी। गरम लू चल रही थी। अरगक आज पहली बार भिक्षा को निकला था। गरमी, भूख और प्यास Jain Education International al For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003423
Book TitlePiyush Ghat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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