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क्षणिकवादी अश्व मित्र
गुरु से ज्ञान प्राप्त करना सहज नहीं है। पात्रता, योग्यता और गम्भीरता की बड़ी जरूरत है । अन्यथा, कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है ।
किसी समय मिथला नगरो के बाहर लक्ष्मी नन्दन बाग में, आचार्य महागिरि अपने शिष्य परिवार को लेकर पधारे । आचार्य का शिष्य था, कोडिन्न और कोडिन्न का शिष्य था, अश्व मित्र । वह बड़ा ही मेधावी और कुशाग्र बुद्धि था । वह अपने गुरु से दशम पूर्व का अध्ययन कर रहा था ।
एक बार उसके मन में शंका उठी
"जीव कभी नारक, कभी देव, कभी मनुष्य और कभी पशु बनता है । विद्युत् के तुल्य यह चेतना को धारा क्षणिक है । वह स्थिर नहीं हैं । कभी कुछ और कभी कुछ ।
आचार्य ने और उसके गुरु ने भी समाधान करने का प्रबल प्रयत्न किया। वे इस प्रकार से बोले - " वत्स, प्रत्येक वस्तु पर्याय दृष्टि से क्षणिक होते हुए भी द्रव्य से स्थिर है ।" परन्तु उसने अपना मिथ्याग्रह नहीं छोड़ा। वह अपना मिथ्या मान्यता पर अटल रहा । समझाना - बुझाना सब बेकार गया ।
एक बार अश्व मित्र राजगृह में पहुंचा । भगवान् महावोर के श्रावकों को ज्ञान हुआ, कि यहाँ एक क्षणिकवादा निन्हव आया है | श्रावक उसको अपमानित करने लगे ।
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