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भूले-भटके राही : १४५ सुखी और समृद्ध होती गई, क्योकि चोर का भय अब नहीं रहा था।
यह शरीर चोर है। धर्म धन है। जीव राजा है। जब तक शरीर से धर्म होता है, तब तक वह उसकी रक्षा करता है। बाद में तप की आग में जलकर अपनी आत्म-शुद्धि करता है।
-उ० अ० ४, गाथा ७, टीका/०
आचार्य आषाढी के शिष्य
संशय और शंका से अध्यात्म-जीवन में कालुष्य आ जाता है। यदि उसका भली-भाँति से समाधान नहीं किया जाता है, तो।
श्वेताम्बिका नगरी के पोलास बाग में, आचार्य आषाढी अपने शिष्यों को योग की साधना करा रहे थे। आधा काम हो चुका था, आधा अभी बाकी था। __कर्म का खेल अद्भुत है। मध्य रात्रि में विसूचिका रोग के तीव्र प्रकोप से आचार्य के जीवन का सहसा अवसान हो गया। आचार्य देवलोक में, देवरूप से उत्पन्न हो गए। शिष्य निद्रा में सोते ही रहे। उन्हें इस घटना का जरा भी पता नहीं लग सका।
देव ने विचार किया-शिष्यों की साधना अभी अधूरी है। यह सोचकर उसने रूपने मृत कलेवर में प्रवेश किया। प्रातःकाल
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