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६६ : पीयूष घट मिले। उसने कहा : "मैं तो भिक्षक हूँ। मेरे पास कुछ नहीं है। ___ उसके ऐसा कहने से चोर चले गये। मार्ग में भूख-प्यास के अनेकों कष्टों को सहन करते हुए उस मुनि ने बड़ी सावधानी के साथ रत्न-कम्बल उस वेश्या को लाकर दिया। रत्न-कम्बल को लेकर वेश्या ने उसे उसी समय अशुचि में फेंक दिया जिससे वह खराब हो गया। यह देखकर मुनि ने कहा : "तुमने यह क्या किया, इसको यहाँ लाने में मुझे कितने कष्ट उठाने पड़े हैं मालूम है ?" __वेश्या ने कहा : "मुने ! मेंने यह सब कार्य तुम्हें समझाने के लिए किया है। जिस प्रकार अशुचि में पड़ने से यह रत्न-कम्बल खराब हो गया है, इसी प्रकार कामभोग रूपी कीचड़ में फंसकर तुम्हारी आत्मा भी मलिन हो जायगी, पतित हो जायगी। हे मुने, जरा विचार करो! इन विषय-भोगों को किपाकफल के समान दुःखदायी समझकर तुमने इनको ठुकरा दिया था। अब वमन किये हुए कामभोगों को तुम फिर से स्वीकार करना चाहते हो। वमन किए हुए की बांछा तो कौए और कुत्ते करते है । मुने ! जरा समझो और अपनी आत्मा को सम्हालो।"
वेश्या के मार्मिक उपदेशों को सुनकर मुनि की गिरती हुई आत्म: पुनः संयम में स्थिर हो गई। उन्होंने उसी समय अपने पाप कार्य के लिए-"मिच्छासमि दुक रुडं" दिया और कहा :
स्थूलभद्रः स्थूलभद्रः स एकोऽखिल-साधुषु ।
युक्तं दुष्कर-दुष्करकारको गुरुणा जये। अर्थात्-सब साधुओं में एक स्थूलभद्र मुनि ही महान् दुष्कर क्रिया के करने वाले हैं। जिस देश्या के यहाँ बारह वर्ष पहले
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