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संन्यासी का द्वन्द ! ६५
जब स्थूलभद्र मुनि आये तो गुरु महाराज एक दम खड़े हो गये, उनकी मुनि की ओर हाथ बढ़ाकर “कृत दुष्कर-दुष्करः" कहा; अर्थात् “हे मुने ! तुमने महान् दुष्कर-दुष्कर कार्य किया है मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ।"
गुरु की बात सुनकर उन तीनों मुनियों को ईर्ष्याभाव उत्पन्न हुआ। जब दूसरा चातुर्मास आया तब सिंह की गुफा में चातुमांस करने वाले मुनि ने कोशा वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। गुरु ने आज्ञा नहीं दी, फिर भी वह वहाँ चातुर्मास करने के लिए चला गया। वेश्या के रूप लावण्य को देखकर उसका चित्त चलित हो गया । वेश्या धर्मशीला बन गई थी। परन्तु मुनि ने वेश्या से भोग की कामना व्यक्त की।
वेश्या ने कहा : "मुझे लाख मोहरें दो, तब""!" "मुनि ने कहा : "हम तो भिक्षुक हैं। हमारे पास धन
कहाँ ?"
वेश्या ने कहा : "नेपाल का राजा हर एक साधु को एक रत्न-कम्बल देता है। उसका मूल्य एक लाख मोहर है। इसलिए तुम वहाँ जाओ और एक रत्न-कम्बल लाकर मुझे दो।
वेश्या की बात सुनकर वह मुनि नेपाल गया। वहाँ के राजा से रत्न-कम्बल लेकर वापिस लौटा। मुनि को जंगल में कुछ चोर मिले। उन्होंने उसका रत्न-कम्बल छीन लिया वह बहुत निराश हुआ। अन्ततः वह पुनः नेपाल गया। अपनी सारी आप बीती कहकर उसने राजा से दूसरे कम्बल की याचना की। अब की बार उसने रत्न-कम्बल को बाँस की लकड़ी में डाल कर छिपा लिया। जंगल में उसे फिर चोर
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