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प्रीत के टाँके
स्वामी सहजानन्दजी गुजरात के एक महान् वैष्णव सन्त हो गए हैं । आत्माराम नामक उनका एक दर्जी शिष्य था । उसने उन्हें भेंट करने के लिए एक बहुत सुन्दर अँगरखा सीया । भावनगर के नरेश ने जब इस अंगरखे को देखा तो इतने प्रसन्न हुए कि ऐसा ही एक सुन्दर अँगरखा अपने लिए सी देने पर सौ रुपये सिलाई देने को तैयार हो गए ।
इस पर दर्जी ने जो उत्तर दिया, वह इतिह स का एक अजर अमर सन्देश है | उसने कहा- "महाराज ! ऐसा दूसरा अँगरखा तो मुझे से सीते नहीं बनेगा । इस अँगरखे में तो प्रीत के टाँके पड़े हैं। ऐसे टांके आपके अंगरखे में डालने के लिए मैं दूसरी प्रीत कहाँ से लाऊँ ?”
सच्ची कला का सर्जन इस प्रकार होता है । विना प्रेम रस के कला, कला नहीं, एक प्रकार का फूहड़पन है ।
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सागर के मोती :
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