________________
१६
१. आर्त ध्यान ३. धर्म ध्यान
बोल उन्नीसवाँ
ध्यान चार
२. रौद्र ध्यान
४. शुक्ल ध्यान
व्याख्या
चित्त को एकाग्र करना ध्यान है— अपनी चिन्तन - धारा को अनेक विषयों से समेट कर किसी एक वस्तु या विषय पर एकाग्र कर लेना, स्थिर कर लेना ही ध्यान है ।
ध्यान चार प्रकार का है । पहले दो संसार के कारण हैं । अतः वे हेय हैं, त्याज्य हैं । अन्त के दो मोक्ष के कारण हैं, अतः वे उपादेय हैं, ग्रहण करने योग्य है ।
Jain Education International
ध्यान, ध्याता और ध्येय इसको त्रिपुटी कहते हैं । ध्यान करने वाला ध्याता होता है । ध्येय; अर्थात् जिसका ध्यान किया जाए, जिसका चिन्तन किया जाए । ध्याता ध्यान के द्वारा ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है । इसको ध्यान की साधना कहते हैं ।
ध्यान के दो भेद हैं- अशुभ और शुभ । पहले के दो ध्यान अशुभ हैं, पिछले दो शुभ; अर्थात् शुद्ध हैं ।
( ७३ )
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org