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रघुवरजसप्रकास
छंद लीलावती गुरु लघु विण नियमं तीस बि मत्ता । लीलावती गुरु अंत कहै। जौ रघुबर गावै सब सुख पावै , निभय जिकां जम ताप नहै। सर गिरवर तारे पदम अठारै , सेन उतारे जगत सखै । भिड़ रांवरण भंजे गढ़हिम गंजे , अमरां रंजे ब्रहम अखै । ५२
छंद जनहरण सब लघु पय पय धरि पछ यक गुरु करि ,
जळहर कळ सम लछण धरै । सुज उर दुति सरवर तिम कळ तरवर ,
सिध रघुवर सुजस बरै । हर अकरण करा सरणा असरण हरी,
तरण अतर भव जळधि तिको। कट कट अघ दुघट विकट्ट थट अ घट ,
झट झट रट रट 'किसन' जिको । ५३
छंद वरवीर चव कळ उरोज थळ च्यार वोज , वरवीर छंद कह यम कव्यद ।
५२. विण-विना। मत्ता-मात्रा। नहै-नष्ट होते हैं। सर-समुद्र। सखै-साक्षी देता है।
भिड़-योद्धा। भंजे-नाश किया। गढ़हिम-लंका। गंजे-जीत लिया। रंजे-प्रसन्न किया।
ब्रहम-ब्रह्मा। प्रखं-कहता है। ५३. पय-चरण । पछ-पश्चात् । जळहर-छंदका नाम । विकट्ट-भयंकर। थट-समूह ।
अणघट-जो घटित न हो। ५४, कव्यंद-कवींद्र, महाकवि ।
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