________________
३८ ]
रघुवरजसप्रकास यण विध पूरब अंक जुड़, सिर पंकतरा अंक। वरण पताका नवीन विध, सूधौ मत निरसंक ॥ १०८
अथ मरकटी लखण कथन ।
छप्पै किव पूछे जौ कोय, ग्यांन खट भांत एक थळ । जिणरी अखु जुगत, सुणौ कवि सुमति सउज्जळ ॥ किती वत्तिके भेद, मात्र कितरीके वरणह ।
कितरा गुरु लघु किता, रटौ हिक ठौड़ सु निरणह ॥ मांडजै तेण पुळ मरकटी, खट विध ग्यांन दिखाइयै । 'किसनेस'सुकव धन जनम किव,गुण जौ राघव गाइयै ॥१०६
अथ मात्रा मरकटी विध कथन ।
___ कवित छप्प पंकत खट करि प्रथम, संख्य मत्ता कोठा सम । पांत व्रत्त भर प्रथम, एक दो त्रय चव यण क्रम ॥ पूरव जुगळ भर भेद पंत, त्री चवथ पंच तज ।
पंत छटी भर पहल, एक बे अंक परठ सुज ॥ धर बीय सीस अकौं सधर, बियौ भेद पंकत सुमिळ । लख बीया अग्र पांचौं सुलछं, पांत छठी यम भर प्रघळ ॥ ११०
आद सुन्य गुरु पंत, अंक अन गुरु लघु पारख । गुरु लघु पंकति गिणे, वरण पंकत भर बेधख ॥
१०८. निरसंक-निशंक । ११०. पांत-पंक्ति । त्रय-तीन । चव-चार । यण- इस । त्री-तीन । चवथ-चौथा ।
बे-दो। परठ-रख । बीय-दूसरा। बियौ-दूसरा। सुलछे-अच्छे लक्षण । प्रघळ
अच्छी प्रकार । १११. पारख-समझ । बेधख-निर्भय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org