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रघुवरजसप्रकास
सारंग समथ सर सझत सुकर जुध । असुर दसह-सिर अडर जरी ॥ सौ रांम 'किसन' किव समर समरि । जिहिं बिजय जिगन करि सियहिं बरी ॥ १७५
सौळह पनरह अखिर पर, होय जठै विसरांम । यकतीसाखिर अंत गुरु, निहचै मनहर नाम ॥ १७६
छंद मनहर
छंद इकतीसौ कवित्त कपटी कळकी कूर कातर कुचाळ कोर , 'किसन' कहत कैसौं कळही अकांम हैं। बैंडौ हं, बकौरौं हं, बुरौ हैं बेसहूर बादी , निलज निमोही नाथ निपट निमांम हं.॥ जसहीन जुलमी जनात जीव जातनाको , जुगति बिनांही झखौ झूठ जांम जांम हं । गरुरके गांमी सुनौ रामचंद्र सांमी, गाढी गरीबी गुनाही तौ हूँ राबरौ गुलाम हं. ॥ १७७
अन्य कवित्त जांनुकी पुकारे जातुधांनकी बिनास का ,
आये बेग जलपै गिरंदनकी पाजके । १७५. सारंग-धनुष । समथ-समर्थ । दसह-सिर-रावण। जिगन-यज्ञ । सिय-सीता।
बरी-वरण किया, पांरिण-ग्रहण किया । १७६. अखिर-अक्षर । जठे-जहां । विसरांम-विश्राम । यकतीसाखिर-इकतीस अक्षर ।
निहचै-निश्चय । १७७. कातर-कायर । कुचाळ-बूरी चाल चलने वाला । अकांम-बिना मतलबका, व्यर्थंका ।
बैडौ-उद्दण्ड । बकौरी-बातूनी, वाचाल । बादी-जिद्दी । निपट-बहुत । निमांममर्यादाहीन । जातना-यातना । गरुर-गरुड़ । सांमी (स्वामी)-मालिक । गाढौ-गहरा ।
गुनाही-गुनहगार । . १७८. जांतुकी-सीत।। जातुधान-राक्षस । गिरंदन-पर्वत । पाज-सेतु, पुल ।
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